ठेले पर हिमालय | THELE PAR HIMALAYA
श्रेणी : बाल पुस्तकें / Children
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
140 KB
कुल पष्ठ :
4
श्रेणी :
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लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
धर्मवीर भारती - Dharmvir Bharati
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)8/23/2016
बार सब शांत था। जैसे हिम सो रहा हो। मैं थोड़ा अलग आरामकुर्सी खींचकर बैठ गया। यह मेरा मन इतना
कल्पनाहीन क्यों हो गया है? इसी हिमालय को देखकर किसने किसने क्या-क्या नहीं लिखा और यह मेरा मन है
कि एक कविता तो दूर, एक पंक्ति, एक शब्द भी तो नहीं जानता। पर कुछ नहीं, यह सब कितना छोटा लग रहा है
इस हिमसम्राट के समक्ष। पर धीरे-धीरे लगा कि मन के अंदर भी बादल थे जो छॉट रहे हैं। कुछ ऐसा उभर रहा है
जो इन शिखरों की ही प्रकृति का है जो इसी ऊँचाई पर उठने की चेष्टा कर रहा है ताकि इनसे इन्हीं के स्तर पर
मिल सके। लगा, यह हिमालय बड़े भाई की तरह ऊपर चढ़ गया है, और मुझे-छोटे भाई को-नीचे खड़ा हुआ, कुंठित
और लज्जित देखकर थोड़ा उत्साहित भी कर रहा है, स्नेह भरी चुनौती भी दे रहा है - हिम्मत है? ऊँचे उठोगे?
और सहसा सन्नाटा तोड़कर सेन रवींद्र की कोई पंक्ति गा उठा और जैसे तंद्रा टूट गई। और हम सक्रिय हो उठे-
अदम्य शक्ति, उल्लास, आनंद जैसे हम में छलक पड़ रहा था। सबसे अधिक खुश या सेन, बच्चों की तरह चंचल,
चिड़ियों की तरह चहकता हुआ बोला, भाई साहब, हम तो बण्डरस्ट्रक हैं कि यह भगवान का क्या-क्या करतूत
इस हिमालय में होता है। इस पर हमारी हँसी मुश्किल से ठंडी हो पाई थी कि अकस्मात वह शीर्षासन करने लगा।
पूछा गया तो बोला, 'हम नए पर्सपेक्टिव से हिमालय देखेगा। बाद में मालूम हुआ कि वह बंबई की अत्याधुनिक
चित्रशैली से थोड़ा नाराज है और कहने लगा, ओ सब जीनियस लोग शीर का बल खड़ा होकर दुनिया को देखता
है। इसी से हम भी शीर का बल हिमालय देखता है।
दूसरे दिन घाटी में उतरकर 12 मील चलकर हम बैजनाथ पहुँचे जहाँ गोमती बहती है। गोमती की उज्जवल
जबराशि में हिमालय की बर्फीली चोटियों की छाया तैर रही थी। पता नहीं, उन शिखरों पर कब पहुँचूँ, पर उस जल
में तैरते हुए हिमालय से जी भरकर भेंटा, उसमें डूबा रहा।
आज भी उसकी याद आती है तो मन पिरा उठता है। कल ठेले के बर्फ को देखकर वे मेरे मित्र उपन्यासकार जिस
तरह स्मृतियों में डूब गए उस दर्द को समझता का ही बहाना है। वे बर्फ की ऊँचाईयाँ बार-बार बुलाती हैं, और हम हैं
कि चौोराहों पर खड़े, ठेले पर लद॒कर निकलने वाली बर्फ को ही देखकर मन बहला लेते हैं। किसी ऐसे ही क्षण में,
ऐसे ही ठेलों पर लदे हिमालयों से घिरकर ही तो तुलसी ने नहीं कहा था .. -कबहुँक हाँ यहि रहनि रहौंगो... मैं क्या
कभी ऐसे भी रह सकूँगा वास्तविक हिमशिखरों की ऊँचाइयों पर? और तब मन में आता है कि फिर हिमालय को
किसी के हाथ संदेशा भेज दूँ... नहीं बंधु... आऊँगा। मैं फिर लौट-लौट कर वहीं आऊँगा। उन्हीं ऊँचाइयों पर तो मेरा
आवास है। वहीं मन रमता है... मैं करूँ. तो क्या करूँ?
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