विस्मृति यात्री | VISMIT YATRI

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राहुल सांकृत्यायन - Rahul Sankrityayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अपनी द्राक्षाओंके लिये उद्यानकी ख्याति शायद इसीलिये नहीं हो सकी, क्योंकि हमारे दुर्गम पर्व॑तोंके मीतरसे सूखी द्वात्मा ( मु॒क्का और किशमिश ) को बाहर ले जाना मुश्किल है। हमारे उदुम्बर ( अंजीर ) और दूसरे भी फल कितने मधुर होते हैं भव्यमण्डलके मि्चु जब हमारे देशकी सदीके बारेमें सुनते, तो वुषार ( तुखार ) कहकर इधर आनेकी हिम्मत नहीं करते थे, पर जब्र मैं उनसे अपने देशकी ज्ञीरवाहिनी नदियों और अ्रम्गृत-मधुर फलोंकी बात करता, तो उनके मनमें उत्सुकता जरूर पैदा हो जाती। हमारे यहाँके मौसिमकी बातचीतसे उसका अनु- भव आदमीकी कैसे हो सकता है ! उसी तरह, हमारे लोगों या इस छांग-आन्‌ महानगरीके लोगोंको भी पता नहीं लग सकता, कि वाराणसी और जेतवनमें गर्मियोंमें भट्टी की जैसी घोर गर्मी होती है | मैं कहता, हमारे उद्यानके निवासी तीनों ऋत॒श्नोंमें उसी तरह तीन गाँवमें बसते हैं, जिस तरह चक्रवत्ती राजा तीन ऋतुओंमें तीन प्रकारके प्रासादोंमें रहा करते थे | जाड़ोंमें हम अपनी बढ़ी नदियोंके निचले भागोंमें जाकर रहते, कभी-कभी उन जन्जलोंमें भी शरण लेते, जहाँ पत्ते बराबर हरे रहते, बफ कभी नहीं पड़ती। वसनन्‍्तके आगमनके साथ जब बर्फ पिघल जाती, हमारे खेत नंगे हो जाते और सदा हरित न रहनेवाले बच्तों और वनस्पतियोंमें पत्तियाँ कलियोंके रूपमें फूट निकलतीं, तो हम अपने पहाड़के ऊपरी गाँवोंमें चले आते | मुके तो सबसे सुन्दर ओर प्यारे उद्यानके वह पयार ( अधित्यकायें ) लगते हैं, जो उत्तुंग पर्वतोंकी पीठपर दूर तक फैले हैं । वहाँ बर्फ और भी पीछे पिघलती, जब कि वर्षा शुरू होती। इन पयारोंके शुरू होनेसे पहले ही बड़े-बड़े बच्तोंकी भूमि खतम हो जाती और केवल घास दही घास दिखाई पड़ती | ऐसी लम्बी-लम्बी घासें, जिनमें हमारी भेड़-बकरियाँ ही नहीं, बल्कि गायें भी छिप जातीं। और कितनी पृष्थ्किर ये धासे होती हैं ! मैंने तो वैसा होते नहों देखा, लेकिन घुना जरूर है, कि इनके खानेसे भेड़ें इतनी मोटी हो जाती हैं, कि उनका शरीर चमड़ेके भीतर नहीं समाता, और वह मध्य- मण्डलकी पकी ककड़ीकी तरह फूट जाती हैं । आन नल




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