अनौपचारिका - दिसम्बर ,2011 | ANAUPCHARIKA HINDI MAGAZINE - DEC 2011

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रमेश थानवी -RAMESH THANVI

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आर |: अशोक राही नाटक सामाजिक बदलाव की एक शैक्षिक विधा है। नाटक से जो सम्प्रेषित होता है वह सीधा दर्शकों के गले उतरता है और उनको सोचने को विवश करता है। नाटक का कथ्य समाज का अपना सच होता है और अपने सच को मंच पर घटित होता देख दर्शक विस्मित होता है और बदलने को विवश होता है। प्रस्तुत है राजस्थान के सुप्रसिद्ध रंगकर्मी एवं रचनारत साहित्यकार अशोक राही की कलम से एक विवेचन । ८ सं. न्‍रई र्ज बर्नाड शॉ ने कहा था - जा थियेटर वह विधा है जो निर्बल को बल, डरे को साहस और जीवन को आत्मविश्वास देती है। शॉ का कथन यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि नाटक भी सामाजिक परिवर्तन में अपनी भूमिका निभा सकता है बशर्ते कि उसका उपयोग एक सधे हुए हथियार के रूप में किया जाये। दरअसल नाटक दो विपरीत चीजों के टकराव से उत्पन्न होता है। दो विचार, दो भाव, दो व्यक्तित्व । हमारी पारम्परिक कथा -कहानियों में नायक और खलनायक एक दूजे से टकराते हैं। रामलीला अपने देश में सैकड़ों वर्ष से न >> 0७. ननीविजी की १४ चल रही है और आज जबकि मनोरंजन के एक से एक बढ़कर एक साधन मौजूद हैं, रामलीला के दर्शकों की संख्या लाखों में है। ये दर्शक अपनी आस्था के कारण रामलीला देखने जाते हैं लेकिन वहां के प्रस्तुतिकरण में इसलिए रम जाते हैं क्योंकि मंच पर अच्छे और बुरे का दूंद्व उन्हें देखने को मिलता है। राम-रावण में टकराव तो जगजाहिर है लेकिन उन्हें दशरथ-कैकेयी, लक्ष्मण-परशुराम, बाली-सुग्रीव, रावण- मंदोदरी, रावण-मारीच के चरित्रों के मध्य भी टकराव देखने को मिलता है। और वहां उन्हें सदैव अच्छाई की जीत होती नज़र आती है। नाटक के दृश्यों , संवादों और अभिनेता- अभिनेत्रियों के अभिनय में दर्शन अपने को एकाकार कर लेता है उस वक्त जो भाव अभिनेता के हृदय में चल रहे होते हैं वही भाव दर्शक के मन में उत्पन्न हो जाते हैं। यही कारण है कि दर्शक रंगमंच के पात्रों की नाट्यस्थितियों के अनुरूप आचरण करता है। वे दुखी हैं और रो रहे हैं तो दर्शक की आंखें भी भीगने लगती हैं। नाटक की रची शक्ति का प्रयोग आज़ादी से पूर्व इष्टा - भारतीय जन नाट्य संघ ने किया था। उस वक्त जागरूक कलाकारों ने जगह-जगह अपने नाटकों के प्रदर्शन किये, हजारों लोगों ने उन्हें देखा और उनके मन में स्वतंत्रता के प्रति ललक जागी। चूंकि इप्टा' के सामने उस वक्त एक बड़ा उद्देश्य था और तब तक वह संगठन उस उद्देश्य में जुटा रहा तब तक इप्टा भी विस्तार पाती रही और आज़ादी के बाद वही महान संगठन सिमटता चला गया। इससे ज़ाहिर होता है कि आम दर्शक भी सामाजिक परिवर्तन के उद्देश्यों को लेकर चलने वाले नाट्य संगठनों से अपने आपको अधिक जुड़ा पाता है। नाट्य जगत में भी दो धाराएं लगातार चलती नज़र आती हैं। एक वह जो नाटक को मात्र मनोरंजन का साधन मानते हैं, दूसरे वह जो नाटक को सामाजिक परिवर्तन का औजार समझते हैं। पहली नज़र में तो दोनों ही अपनी-अपनी जगह सही नज़र आते हैं। लेकिन गहराई से अध्ययन करने पर समझ आता है कि जिस धारा ने भी अपने आपको कट्टर रखा वही धीरे-धीरे सूखती नज़र आयी। नाटक को सिर्फ हंसी - उठूठा मनोरंजन, समझने वाले संगठनों का डिब्बा भी जल्दी ही गोल हो गया। एक समय दिल्ली जैसे महानगर में चलने वाला पंजाबी थियेटर इसका उदाहरण है। जिनका केन्द्र सप्रुहाउस था। इन नाटकों ने एक समय दर्शकों को खूब खींचा लेकिन कुछ ही वर्षों में यह थियेटर पिछड़ गया। दूसरी तरफ नाटक दिसम्बर, २०११




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