अनौपचारिका -मई 2012 | ANAUPCHARIKA HINDI MAGAZINE - MAY 2012

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रमेश थानवी -RAMESH THANVI

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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विवेचन शिक्षा संसार में अभिभावकों की अनुपस्थिति आशा अखच्यर बालकों की शिक्षा घर में होती है। फिर यदि उनकी शिक्षा का दूसरा स्थान शालाएं बनती हैं तो वहां भी घर की उपस्थिति उतनी ही अनिवार्य है। अध्यापकों और अभिभावकों के सार्थक एवं स॒जनात्मक सहकार के बिना कभी भी बालक की शिक्षा सम्पूर्ण नहीं हो सकती। तो फिर जरूरी यह है कि अभिभावकों की शिक्षा पहले हो और बालकों की बाद में। इस पूरे मसले से जुड़े कई सवालों पर विचार कर रहीं हैं आशाजी जो इंदौर में रहती हैं और कनुप्रिया के नाम से कहानियां भी लिखती रही हैं। ० सं. ब च्वों की शिक्षा की बात जब भी होती है सामान्यतया शिक्षकों, शिक्षा नीतियों व इनसे जुड़े प्रशासनिक अधिकारियों की ही बात प्रमुख रूप से होती है। एक बच्चे की शिक्षा-दीक्षा में अभिभावकों का कितना महत्त्वपूर्ण योगदान होना चाहिए, इस पर जैसे विचार ही नहीं किया जाता है, बल्कि इसे एक प्रकार से 'टेकन फॉर ग्रांटेड' लिया जाता है। मेरा अपना अनुभव यह है कि बच्चों के माता- पिता को शिक्षा की संपूर्ण प्रक्रिया में केवल फीस व अन्य भौतिक साधनों के प्रदाता, प्रगति पुस्तिका में हस्ताक्षर करने वाले और बुलाये जाने पर विद्यालय में आकर अपने बच्चों की शिकायतें सुनने वाले एक अभिभावक के ही रूप में देखकर संतुष्टि कर ली जाती है। होना तो यह चाहिए कि माता-पिता को बच्चे के शिक्षा-त्रिकोण की सबसे महत्त्वपूर्ण भुजा मानना चाहिये। दुख तो यह है कि अधिकांश माता-पिता अपने बच्चे को अपनी ओर से बेहतरीन समझे जाने वाल विद्यालय में प्रवेश दिलवाने को ही अपना प्राथमिक व अंतिम कर्तव्य मान दृश्य पटल से हट जाते हैं। अपने कार्यकाल में मुझे व्यक्तिगत रूप से यह लगा कि उन्हें भी मागर्दशन व हौसला अफजाई की आवश्यकता होती है और उन्हें ये जताये जाने की परम आवश्यकता है कि बच्चे को कितने ही अच्छे स्कूल में क्‍यों ना भर्ती कराया गया हो, उन्हें लगातार अपने माता- पिता की जरूरत होती है। उन पर लगातार नजर रखने की भी जरूरत होती है। आज भारत समेत हर कहीं अनेकानेक समस्याएं हैं। मल्टी मीडिया की घोर व्यापकता से उपजी हुई समस्याओं का कहीं ओर-छोर ही नहीं है। हम सब शिक्षकों व शिक्षण व्यवस्था को जी भर कोस लें तो समाधान तो नहीं हो जायेगा ना ? आदर्श स्थिति तो यह होगी कि पहली कक्षा में बालक बालिका के साथ उनके माता-पिता भी आये और पहले दिन से ही शिक्षक के साथ वे बच्चों के विकास में हाथ बंटाएं। बच्चे के साथ शिक्षक व माता-पिता दो अलग-अलग थ्रुवों की भांति चलते रहते हैं और शिक्षक को तो यह लगने लगता है कि उसके जंगल में दूसरा शेर ना ही आये। घर में शिक्षक का नाम न लिया जाये व स्कूल में अभिभावक क्या कहते हैं या सोचते हैं- यह जानने या सुनने का अवकाश ही शिक्षकों को नहीं होता है, ऐसा ही है-इसलिए बच्चे को लेकर रस्साकशी चलती रहती है। स्कूल की बातें घर में और घर की बातें स्कूल में न कह पाने की लाचारी में मई, २०१२




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