अपना दाना | APNA DAANA

APNA DAANA  by पुस्तक समूह - Pustak Samuhसर्वेश्वर दयाल सक्सेना - Sarveshwar Dayal Saxena

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सर्वेश्वर दयाल सक्सेना - Sarveshwar Dayal Saxena

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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की भीड़ थी। बच्चे खाने की चीजों पर धक्‍कमधक्का करते टूटे पड़ रहे थे। लेकिन उसे इससे क्या ? वह तो अपना दाना खा चुका था। उस लड़के ने एक खोमचे वाले के चारों तरफ लगी भीड़ में रास्ता बनाकर उसे घुसा लिया, फिर खुद भी उसकी बगल में आ खड़ा हुआ। उसने देखा, छोटे-छोटे चवन्‍नी के आकार के बिस्कूटों का बड़ा-सा थाल है। बीच में एक लकड़ी का चक्‍का है जिसके किनारे पर एक से लेकर सौ तक की गिनती है। चक्के के बीच में एक सूई है। सूई पर घुंडी लगी है। लड़के घुंडी : पकड़कर सूई घुमाते हैं, जितने नम्बर पर सूई रुझती है, खोमचे वाला उतने बिस्कुट उसे दे देता है। साथ वाले लड़के ने एक इकन्‍नी खोमचे वाले को दी और उससे कहा, “सूई मेरा यह दोस्त घुमाएगा।” उसने उसके कहने पर डरते-डरते सूई घुमाई और वह सौ के अंक पर आकर रुकी। खोमचे वाले ने सौ बिस्कुट उस लड़के को दे दिए। वह फूला नहीं समा रहा था। बिस्कुट लेकर वह भीड़ से बाहर निकला। उसने उसे भी कुछ बिस्कुट देने चाहे। लेकिन उसने कहा, “मैं अपना दाना खा चुका हूँ।” उसने पाया। उसके मन में थोड़ा लालच आ रहा है। मन समझा रहा है-“तेरा भी हिस्सा इसमें है। पैसे उसके थे तो क्‍या हुआ, सूई तो तूने घुमाई थी।” वह लड़का कहे जा रहा था, “तू बड़ा भाग्यवान है। हम सब सूई घुमाते हैं, पर दस-पाँच पर ही घूमकर रुक जाती है, सौ पर नहीं रुकती। तूने तो मजा ला दिया। लोग कहते हैं, जो नेक होता है उसका हाथ जहाँ भी लगता है बरक्कत होती है। तू नेक




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