काऊ बेल्ट की उपकथा | COW BELT KEE UPKATHA

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धर्मवीर भारती - Dharmvir Bharati

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पुस्तक समूह - Pustak Samuh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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8/23/2016 बैरागियों को सौंप दिया जाए। इस परंपरा के पीछे इस प्रदेश के महाकवियों की वाणी है। रामायण के अमर गायक तुलसीदास, जिन्होंने काशी के कुछ कट्टर पंडितों की निंदा-आलोचना से क्षुब्ध हो कर लिखा था - धूत कहौ, अवधूत कहौं, रजपूत कहो जुलहा कहाँ कऊ, माँग के खाइबौ, मसीत को सोडबौ, लैबै को एक न देबै की दोऊ।' (मुझे कोई कुछ भी कहे, मुझे क्या करना, माँग कर खाऊँगा, मस्जिद में जा कर सो रहूँगा, न किसी के लेने में न किसी के देने में।) मस्जिद पराई नहीं थी तुलसीदास के लिए। और न मुस्लिम होने की बिना पर अलाउद्दीन अपना था मलिक मुहम्मद जायसी के लिए। अपनी 'पदमावत' में चित्तौड़ पर हमला करनेवाले मुस्लिम सुल्तान अलाउद्दीन को जायसी ने 'अलादीन सैतानू' घोषित किया, उसे शैतान की संज़ा दी। इस प्रदेश के सूफियों, संतों और फकीरों ने बार-बार कहा कि राम और रहीम के बंदों में कोई फर्क नहीं, वे मन-प्राण से एक हैं और संतों, सूफियों के साथ गुरुओं ने यही उपदेश दिया। गुरू गोविंदसिंह ने स्पष्ट कहा - मानुस की जात सबै एके पहिचानिबो। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि सदियों की इस अध्यात्म समृद्ध मानवप्रेमी परंपरा ने विरासत में हिंदी प्रदेश को एक गहरी उदारवादी मानसिकता दी जो सत्य के प्रति एकनिष्ठ थी, जाति और धर्म के नाम पर पनपनेवाली क्षुद्र संकीर्णताओं से मुक्त होने की कोशिश करती थी व्यावहारिक जीवन में। रैदास, कबीर, दादू की बानी से सुपरिचित छोटी से छोटी जाति के लोग तथा गरीब से गरीब किसान, दस्तकार और जुलाहे भी सब में एक आत्मा को पहचानने और मानवीय मर्यादाओं का कथनी और करनी में पालन करने की क्षमता रखते थे। यदि शिक्षा का काम संस्कार देना है तो मुझे यह कहने में संकोच नहीं है कि इन चार सौ वर्षों की परंपरा ने उन्हें सच्चे अर्थों में सुशिक्षित (चाहे उन्हें अक्षर ज्ञान हो या नहीं) और संस्कारवान बनाया था। हिंदीभाषी प्रदेश के चरित्र का यह आयाम अपने में अनूठा और सारे भारत में अद्वितीय था। अंग्रेजी शिक्षा और संस्कारों से समाज की जो ऊपरी सतह प्रभावित हो कर पश्चिम के छगद्म तर्कवाद और कैरियर-परस्ती की ओर दौड़ पड़ी थी, वह चाहे विपथगामी होने लगी हो, पर जन-सामान्य में यह गहरी मूल्य चेतना, मर्यादा बुद्धि और सर्व-धर्म समभाव और मानव-प्रेम की परंपरा अक्षुण्ण थी। हिंदीप्रदेश इस मामले में विलक्षण था, देश के अन्य भागों से कहीं अधिक गहरे संस्कार वाला था - मेरी इस बात को आप शायद मेरा मोह समझें, शायद आप यह समझें कि अपने हिंदी भाषी प्रदेश की यह अतिरंजित प्रशंसा कर प्रकारांतर से मैं आत्मप्रशंसा कर रहा हूँ। पर अपने इस कथन (कि हिंदी प्रदेश में गहरी विल्स्‍क्षण अध्यात्म चेतना और एकात्मपरक मानववादी संस्कार रहा है) की गवाही में बतौर सबूत मैं पेश करता हूँ अहिंदी प्रदेश के एक महान विश्वविख्यात चिंतक की वाणी - कहते हैं वे कि 'देश के अनेक भागों में जहाँ अंग्रेजी के माध्यम से आई विचारधारा का प्रभाव है वहाँ लोग भटक गए हैं। उनकी प्रवृत्ति भोग की ओर है। वे आध्यात्मिक विषयों में गहरी अंतर्दष्टि कैसे प्राप्त कर सकते हैं? ...दूसरी ओर देखो तो हिंदीभाषी संसार में बड़े प्रभावशाली प्रतिभावान त्यागी उपदेशकों की परंपरा ने द्वार-द्वार तक वेदांत के सिद्धांतों को पहुँचा दिया है। विशेषकर पंजाब केसरी रणजीत सिंह के शासन काल में त्यागियों को जो प्रोत्साहन दिया गया उसके कारण नीचातिनीचों को भी वेदांत दर्शन के उच्चतम उपदेशों को ग्रहण करने का अवसर प्राप्त हो गया। सात्विक अभिमान के साथ पंजाब की कृषकपुत्री कहती है कि मेरा सूत कातने का चरखा भी सोहम पुकार रहा है। और मैंने मेहतर त्यागियों को भी ऋषिकेश के अरण्यों में संन्यासी का वेश धारण किए हुए वेदांत का अध्ययन करते हुए देखा है। ...इसी प्रकार पंजाब और उत्तर प्रदेश में धार्मिक शिक्षा बंगाल, बंबई या मद्रास की अपेक्षा अधिक है। वहाँ भिन्‍न संप्रदायों के सदाकाल प्रवास करनेवाले त्यागी (साधु)-दशनामी, बैरागी, पंथी (नानकपंथी, कबीरपंथी, दादूपंथी, रैदास पंथी आदि) लोग प्रत्येक दवार पर धर्म का उपदेश दिया करते हैं।' 47




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