श्रीकांत | SHREEKANT

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शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय - Sharatchandra Chattopadhyay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१६ « धीरान्त कुरता बदलने सया। देखा, सच ही अन्दर से वह यरदा हो गम है। होते को बात ही थी, भौर मैंने हो कुछ ओर प्रत्याद्या की हो, ऐसा नही, सेवित मेरा भत चिन्तन मे ही लगा था, इसलिए तितान्त तुच्छ केंचुन के बाहुर-भीतर वी असगादग ने ही मुझे फिर नई चोट पहुंचाई । राजलक्ष्मी की यह सामसयगली बहुत बार हम लोगो ने लिए बेमानी, दुछ देने वाली यहाँ तक कि जुल्म-सी भी लगी है और उसका सब अभी तुरन्त धुन हो गया, यह भी नही, लेकिन इस अन्तिम श्लेष मे में वही देस पाया, जिसे भाव तक मन देरूर नही देखा या। इस अनोखी औरत के व्यकत और अब्यवत जीवन वी थार जहाँ एकाल्त प्रतिकूल बह रही है, आस मेरी नियाह ठीक उसी जगह पड़ी । एक दित बड़ें आश्चर्म से यह छतोचा था, छुटपत मे राजलद्ष्मी ते जिसे प्यार किया था, उसी को प्यारी ने अपने उत्माद यौवन को किसअतृप्त लालसा की रीघ से इस तरह सहज ही घतदल-कमलन्सा एक पल में विकाल बाहर किया ! आज जी में हुआ, वह प्यारी नही, राजलक्ष्मी ही थी | राजलक्ष्मी और प्यारी, इन दो नामी में उसके नारी-जीवन का क्रितना बड़ा सवेत छिपा या, कयाकि देखते हुए भी उसे नही देखा, इसीलिए रून्देह से ध्रीच-ओच में सोचता रहा--एक में एड दूसरी अब तक जोवित कैसे रहो, लेडिन मनुष्य तो ऐसा ही होता है ! जभी तो बह मनुष्य है। प्यारी का पूरा इतिहास जावता भी नही, जानने को इच्छा भी नहीं, यह भी नहीं कि राजसह्ष्मी का हो सब कुछ जानता है--जानता पति इतना ही हूँ नि दोतो के कर्म और मर्म मे बभी कोई मेल, कोई सामशस्य मही था। सदा दोनों एश- दूसरे से विषरोत हो महुती रहो। इसीलिए एक के एकान्त सरोवर में जब शुद्ध और सुन्दर प्रेप बा कमल एक ने थाद ट्रूघरी पखडियाँ फंलाता रहा, तर टूसरो दे डुर्दाग्त जीवन की पूर्णो हवा उसे छेड तो कप! पाए, धुसने की राह हो में पा सकी | जभी तो उसकी एक भी पणडो न टूटी, पूल-रेत भी उडाकर उसे छू न सकी 1 सदियों की साँस पनी ह :७ी, पर मैं वहां दंदा सोचता हो रहा ! सोचता रहा, आखिर सिर्फ शरीर ही तो मदुध्य नहीं। प्यारों नही है, वह मर घुबी है। बइभो अगर उसने पसदे धरीरएर बही शालिस ही लगाई हो, तो ब्य यही सबसे बड़ो बात हो गई ? ओर, यह राजलह्मी जो दु सकी हजादों अग्नि- प्ररोक्षाओ से उत्तीर्ण होबार आज अपनी अवलब निर्मलता लिए सामने खड़ी है,




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