चेन्नई घोषणा पत्र | CHENNAI DECLARATION

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अनिल सदगोपाल - ANIL SADGOPAL

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पुस्तक समूह - Pustak Samuh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जैसा कि भारत की शिक्षा व्यवस्था में विश्व बैंक के हस्तक्षेप का असली मकसद था, देशभर में निजी स्कूलों के लिए तेजी से फैलता हुआ बाजार खुल गया। सन्‌ 2000 में डी.पी.ई.पी. की गड़बड़ियों व कमियों का पुलिंदा सर्व शिक्षा अभियान' के एक नए चमकदार लेबल के साथ जनता को भ्रमित करने के लिए पेश किया गया। मार्च 2010 में जब यह अभियान खत्म हुआ तब तक सरकारी स्कूलों की विश्वसनीयता पूरी तरह खत्म हो चुकी थी जबकि स्कूलों में दाखिला पाने से वंचित और दाखिला पाए हुए बच्चों को स्कूल में टिकाए रखने की दोनों समस्याएं जस-की-तस बनी रहीं। उक्त बुनियादी सवालों को नजरंदाज करते हुए, नवउदारवादी एजेंडे की अगली कड़ी में, भारी हो-हल्ले के साथ शिक्षा अधिकार अधिनियम, 2009 लाया गया। इसके तहत स्कूलों में शिक्षक-संबंधी, अधोसंरचना-संबंधी व शैक्षिक सुविधाओं के लिए जो न्यूनतम मानदंड तय किए गए वे मोटे तौरपर डी. पी. ई. पी. और 'सर्व शिक्षा अभियान' के घटिया मानदंडों के ही समकक्ष थे। इसके अलावा स्कूल व्यवस्था पूर्ववत भेदभावपूर्ण और बहुपरती बनी रहेगी, कानून के विभिन्न प्रावधानों का यही निहितार्थ था। यानी, यह कानून, 'राज्य' द्वारा वित्तपोषित पड़ोसी स्कूल पर टिकी हुई समान स्कूल व्यवस्था की चिएरप्रतीक्षित जन-आकांक्षाओं के ठीक उलट था। यह भी चल जाता यदि कानून में निजी स्कूलों को मुट्ठी भर वंचित बच्चों! के नाम पर “25 फीसदी कोटे' के बहाने सरकारी खजाने से फीस प्रतिपूर्ति करने का प्रावधान नहीं होता। फीस प्रतिपूर्ति की यह व्यवस्था, जो पी.पी.पी. का ही एक रूप है, और साथ में निजी स्कूलों को मनमानी ढंग से अनियंत्रित फीस बढ़ोतरी की छूट, कानून में शिक्षा के बाजाशीकरण को तेज करनेवाले छिपे या अलिखित एजेंडे के ही सबूत हैं। ऐसा प्रावधान एक तरह से निजी स्कूलों के मुकाबले सरकारी स्कूलों को 'घटिया' मान लेने की बहुप्रचारित आम धारणा का न केवल चतुर वैधानिकरण है वरन्‌ घोषणा भी है कि वे हमेशा के लिए 'घटिया' ही रहेंगे। यानी, यह कानून 'राज्य के समतामूलक गुणवत्ता की शिक्षा सुनिश्चित करने की अपनी संवैधानिक जवाबदेही से पीछे हटने के नवउदारवादी एजेंडे को वैधानिक बना देता है। दरअसल, कानून का असली मकसद बच्चों को समतामूलक गुणवत्ता की मुफ्त शिक्षा का मौलिक अधिकार देना तो कतई नहीं था वरन्‌ कारपोरेट घरानों, स्वंयसेवी संगठनों (एन.जी.ओ.) और धार्मिक संस्थाओं 'यह विडंबना ही है कि कानून का पूरा क्रियान्वयन होने पर भी इस प्रावधान के तहत निजी स्कूलों में दाखिला पानेवाले बच्चे 5-14 आयु-समूह के 6-7 फीसदी से अधिक नहीं हो सकते जबतक कि या तो निजी स्कूलों की संख्या में भारी इजाफा न हो या सरकारी स्कूलों को निजी स्कूलों में तबदील न कर दिया जाए। पी.पी.पी. की वर्तमान नीतियां स्कूली शिक्षा के बाजारीकरण की रफ्तार तेज करने के लिए उपरोक्त दोनों रास्ते अपना रही हैं जिसके पक्ष में जनमत जुटाने के लिए सरकार के हाथ में “25 फीसदी कोटे' का प्रावधान खुद ही एक कारगर साधन बन गया है। चेन्नई घोषणापत्र 2012 ... 12 शिक्षा अधिकार मंच, भोपाल




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