बम्बू | BAMBU

BAMBU by अरविन्द गुप्ता - Arvind Guptaसुजाता पद्मानाभन - SUJATA PADMANABHAN

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सुजाता पद्मानाभन - SUJATA PADMANABHAN

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पद्मा ने भौंचक्‍के होकर आबाले की ओर देखा। उसके चेहरे पर पीड़ा झलक रही थी। वो अपने पिता को अच्छी तरह जानती थी और जब उन्होंने बम्बू को “बेकार” कहा तो वो यह समझ गई थी कि उनका क्‍या मतलब हो सकता है। “आबाले,” हिम्मत जुटाकर उसने हौले से पूछा, “आपने कहा कि बम्बू हमारे लिए बेकार है, इसका क्‍या मतलब है आबाले?” “देखो, हमें बम्बू को खिलाना-पिलाना पड़ता है, है ना? और अगर गर्मी के महीनों में, जब पर्यटक हमारे पहाड़ों पर ट्रेक करने आते हैं, तब हम उसका इस्तेमाल ही नहीं कर पाएँ तो उसे रखने का क्‍या फायदा? मुझे लगता है कि उसे बेचकर हमें कोई दूसरा गधा खरीद लेना चाहिए, या शायद एक घोड़ा!” पद्मा का डर सही साबित हुआ। “नहीं, प्लीज़, प्लीज़ उसे मत बेचिए, आबाले,” गुहार लगाते हुए पद्मा दौड़कर उनसे लिपट गई | आबाले अपनी बेटी की भावुकता को सम्हाल नहीं पाए। “ज़रा समझ से काम लो पदूमा,” उन्होंने खट-से कहा। “हम इतने अमीर नहीं हैं कि बम्बू जैसे जानवरों को पाल सकें,” कहते हुए वे घर से बाहर चले गए।




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