कर्मठ महिलाएं | WOMEN WHO DARED

Book Image : कर्मठ महिलाएं  - WOMEN WHO DARED

लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :

पुस्तक समूह - Pustak Samuh

No Information available about पुस्तक समूह - Pustak Samuh

Add Infomation AboutPustak Samuh

रितु मेनन - RITU MENON

No Information available about रितु मेनन - RITU MENON

Add Infomation AboutRITU MENON

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
12 * कर्मठ महिलाएं बहाए ले जा रही थी-मन में बैठी यह आशंका उभरने लगी थी। साथ ही कुंठा की एक परत जमने लगी थी। हमारे अपने घर से दूर बनाए गए इस नए घर में भी पुरानी दरारें दिखने लगीं। पार्टियों में किया गया कटाक्ष, फिजूल, हानिकारक एवं उससे भी बुरी, अविश्वासपूर्ण बातें मुझे बहुत दुःख पहुंचातीं। मैं खुद का बचाव करती-अलग-थधलग रहने लगी । साथ ही मैंने अपने बालों को 'पर्म' करवाया, उन्हें गहरे काले रंग में रंगवाया | अब मैं अपनी क्षमता को एक अभेद्य ढाल की भांति धारण कर लेती। मेरा हृदय एक क्रुद्ध सर्द मुट्ठी में कैद होकर रह गया था। हरदेव ने अन्य पूर्व कामरेडों के साथ मिलकर जिस एक्सपोर्ट कंपनी की नींव रखी, वह विशालतम ट्रेडिंग हाउस में से एक साबित हुई। एक दिन जब वह अरुणा आसफ अली से मिलकर आया तो यह खबर दी कि अरुणा- अपने प्रकाशन घर में मुसीबतों में थीं, और हरदेव ने उन्हें मदद का वचन दे दिया था। में कुछ समझ पाती इससे पहले ही हरदेव ने अरुणा जी से राजकमल प्रकाशन का अधिकांश खरीद लिया था। और वहां के प्रबंध निदेशक, जिसके पास मुट्ठी भर शेयर और हेरों महत्वाकांक्षाएं थीं, से बुरी तरह उलझ गया था। गौरतलब है कि लेखकों के बीच भी उस निदेशक की अच्छी पहचान थी। हम उन्हें न तो जानते और न ही तब तक उनकी सुध हमें थी। चूंकि कुछ शेयर मेरे नाम भी खरीदे गए थे, बोर्ड की बैठक में मेरी उपस्थिति स्वाभाविक थी। बैठक में हंगामा होता और यह असझ्य था। जिंदगी में मैंने पहली बार हरदेव को लड़खड़ाते हुए देखा-वह अपनी क्षमता से ज्यादा बोझ ले चुका था। दो-चार महीने बीते, तब जब एक बार फिर प्रबंध निदेशक ने हरदेव को सताने के लिए पद छोड़ जाने की धमकी दी तो मैंने उसके सामने एक सादा कागज रख दिया और त्याग-पत्र लिखकर देने की मांग की। अरुणा जी को तो मानो काठ मार गया। हरदेव भी हतप्रभ था। वहां 'तू-तू, मैं-मैं' की नौबत आ गई । हरदेव चिल्लाया “क्या कर रही हो शीला? इस संस्थान को कौन चलाएगा? तुम तो हिंदी पढ़ भी नहीं पाती।” वह तो बल्कि उस व्यक्ति को मनाने के लिए तैयार था। उससे त्याग-पत्र पर पुनर्विचार का आग्रह भी किया। लेकिन मुझे यह सब कुछ भी नहीं किए था। परिस्थितिजन्य अन्याय ने मेरे क्रोध को भड़का दिया था और मेरा हठ हावी हो गया था। प्रबंध निदेशक कुछ कर्मचारी, कुछ लेखक एवं हृदय में बदले की आग लिए अलग हो गया। उसने अपना प्रकाशन स्थापित कर लिया। और इस तरह पासा फेंका जा चुका था। घर में प्रतिदिन अभूतपूर्व तनाव होते क्‍योंकि मैं एक ऐसे कार्यालय में शीला संधू 13 बारह-बारह घंटे काम करती जहां उस भाषा में प्रकाशन होता जिसे मैं नहीं जानती; जिसकी लिपि भी बमुश्किल पढ़ पाती । पैंतालीस पार करने के बाद मन में देवनागरी लिपि रचने-बसने लगी और मैंने अपनी आंखों को प्रशिक्षित किया कि देवनागरी 'म” को अनजाने में गुरुमुखी 'स” न समझें। कहां फंस गई थी मैं? हिंदीवालों' के इस अपरिचित संसार में मैंने जैसे ही कदम रखे, लोगों ने तत्काल मुझे नकार दिया। मैं 'तेज तर्रा और “पर-कटी' पंजाबन थी जिसके पास साहित्य विचार की बू तक नहीं थी। मैं जानती थी कि मेरे बाल छोटे थे; मेरे पति व्यावहारिक रूप से इस प्रकाशन घर के मालिक थे तथा कुछ लोगों के नजरिए में मैं खतरनाक दिखती थी, पर मैं उनकी मुखाक़ति से भी. अवगत थी कि उनकी नजर में मैं असंस्कृत, हावी और गुस्सैल थी। वे मुझ पर विस्मय-मिश्रित घृणा की नजर डालते। मैं भी विस्मित नजर, जिसमें घृणा मिली होती, से उन्हें घूरती। शायद ही पहले कभी इससे अधिक सांस्कृतिक विषमता वाले लोग एक साथ रहने को मजबूर हुए होंगे। 'काउ बेल्ट” से संबद्ध न होने के कारण क्‍या लोग मुझे कभी माफ नहीं करते? गुस्से में मुझे लगता कि पान-चबाते इन अपरिचित नाम वाले लोगों को दुनियादारी की दो-एक बात सिखा दूं। आखिरकार मैं भी अच्छी-खासी पढ़ी लिखी, देश-दुनिया घूमी हुई, उच्च शिक्षा प्राप्त महिला थी। मैं जहां से आई थी वहां इस ढिठाई एवं सुलभता से इन बातों पर कोई नहीं थूक सकता था। में परिचित एवं सुग्राह्म दिखने वाली लघु-कथाएं पढ़ने लगी। “नई कहानियां' के माध्यम से हिंदी साहित्य की जटिल दुनिया से रू-ब-रू हुई। मैंने अंधेरे में अपना रास्ता तलाशा और पुनः वहीं से वापस आ गई। मैं वह भाषा, उसके लेखक या उन लेखकों की सामाजिक मान्यताएं नहीं जानती। यह भी अनुमान न कर पाई कि मुझसे क्‍या अपेक्षित था। एक ऐसी भाषा जिसे पढ़ने-लिखने की बात तो दूर बोलने में भी कठिनाई होती, उसके दिग्गज या संघर्षरत लेखकों के साथ कैसे वर्ताव किया जाए? ऊपर वाले की कृपा से इस उद्दण्ड माहौल में भी द्विवेदी सरीखे ज्ञानी संत थे जिन्होंने मेरे सर पर अपना हाथ रखा और मेरे अंदर दुबकी बीबी सुशील कौर से बातचीत की। यह एक ऋण था जिससे मैं उक्रण नहीं हो सकी। पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस तथा प्रगतिशील लेखक संघ के कुछ मित्र, उर्दू के कुछ कवि तथा लघु कथा लेखकों ने मुझे अपनी नजर उठाए रखने में मदद की । इस कठिन घड़ी में नामवर सिंह, जादुई वक्तृत्व एवं अध्यापन शैली के मालिक, की सलाहकार की भूमिका जितनी ही राजकमल के लिए जरूरी थी उतनी ही मेरे लिए। लेकिन उनकी भूमिका से अचानक साहित्य की दलगत व निजी राजनीति की समस्या उठ खड़ी हुई। री...




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now