कबीर दोहे | KABIR KE DOHE

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कबीरदास - Kabirdas

कबीर या भगत कबीर 15वीं सदी के भारतीय रहस्यवादी कवि और संत थे। वे हिन्दी साहित्य के भक्तिकालीन युग में ज्ञानाश्रयी-निर्गुण शाखा की काव्यधारा के प्रवर्तक थे। इनकी रचनाओं ने हिन्दी प्रदेश के भक्ति आंदोलन को गहरे स्तर तक प्रभावित किया। उनका लेखन सिखों ☬ के आदि ग्रंथ में भी देखने को मिलता है।

वे हिन्दू धर्म व इस्लाम को न मानते हुए धर्म निरपेक्ष थे। उन्होंने सामाज में फैली कुरीतियों, कर्मकांड, अंधविश्वास की निंदा की और सामाजिक बुराइयों की कड़ी आलोचना की थी। उनके जीवनकाल के दौरान हिन्दू और मुसलमान दोनों ने उन्हें अपने विचार के लिए धमकी दी थी।

कबीर पंथ नामक धार्मिक सम्प्रदाय इनकी शिक्षाओं के अनुयायी ह

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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और दोस्ती कर ली है चोरों के साथ ऊ जब उस दरबार में तुझपर मार पडेगी, तभी तू असलियत को समझ सकेगा | खूब खांड है खीचडी, माहि पडयाँ टुक लूण | पेडा रोटी खाइ करि, गल कटावे कूण | |8| | भावार्थ - क्‍या ही बढिया स्वाद है मेरी इस खिचडी का जरा-सा, बस, नमक डाल लिया है पेडे और चुपडी रोटियाँ खा-खाकर कौन अपना गला कटाये ? 38 12 : : भ्रम-बिधोंसवा का अंग जेती देखो आत्मा, तेता सालिगराम | साधू प्रतषि देव हैं, नहीं पाथर सूं काम | |1 | | भावार्थ - जितनी ही आत्माओं को देखता हूँ, उतने ही शालिग्राम दीख रहे हैं | प्रत्यक्ष देव तो मेरे लिए सच्चा साधु है |पाषाण की मूर्ति पूजने से क्या बनेगा मेरा ? जप तप दीसें थोथरा, तीरथ ब्रत बेसास | सूवै सैंबल सेविया, यौ जग चल्या निरास | |2 | | भावार्थ - कोरा जप और तप मुझे थोथा ही दिखायी देता है , और इसी तरह तीर्थों और व्रतों पर विश्वास करना भी | सुवे ने भ्रम में पडकर सेमर के फूल को देखा, पर उसमें रस न पाकर निराश हो गया वैसी ही गति इस मिथ्या-विश्वासी संसार की है | तीरथ तो सब बेलडी, सब जग मेल्या छाइ | * कबीर' मूल निकंदिया, कौण हलाहल खाइ | |3 | | भावार्थ - तीर्थ तो यह ऐसी अमरबेल है, जो जगत रूपी वृक्ष पर बुरी तरह छा गई है | 39 कबीर ने इसकी जड ही काट दी है, यह देखकर कि कौन विष का पान करे 5 मन मथुरा दिल द्वारिका, काया कासी जाणि | दसवां द्वारा देहुरा, तामैं जोति पिछाणि | |4 | | भावार्थ - मेरा मन ही मेरी मथुरा है, और दिल ही मेरी द्वारिका है, और यह काया मेरी काशी है | दसवाँ द्वार वह देवालय है, जहाँ आम्म-ज्योति को पहचाना जाता है | [ दसवें द्वार से तात्पर्य है, योग के अनुसार ब्रह्मरन्ध से | ] कबीर' दुनिया देहरै, सीस नवांवण जाइ | हिरदा भीतर हरि बसै, तू ताही सौ ल्‍यो लाइ | | 5| | भावार्थ - कबीर कहते हैं --यह नादान दुनिया, भला देखो तो, मन्दिरों में माथा टेकने




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