अनौपचारिका -जनवरी 2012 | ANAUPCHARIKA HINDI MAGAZINE - JAN 2012

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रमेश थानवी -RAMESH THANVI

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पृष्ठ - १० से आगे ... है पर व्यवहार में वे भद्दे ढंग से लिप्त रहते है। उन्हें प्राणों का इतना मोह है कि किसी बड़े प्रयत्न करने की जोखिम उठाने की बजाय वे दरिद्रता के निम्नस्तर पर जीना ही पसन्द करते हैं। आत्मा के इस पतन के लिए मुझे यकीन है जाति और औरत के दोनों कटघरे मुख्यतः: जिम्मेदार हैं। भारतीय संस्कृति की इस छवि को कोई अभिव्यक्ति आज तक नहीं मिली। हम डॉ. विलियम आर्चर की आलोचना का समर्थन नहीं कर रहे हैं बल्कि अपने समय में, अपनी ही संस्कृति को, अपनी आवश्यकता के बरक्स रखना चाह रहे हैं यानी आत्म परीक्षण करना चाह रहे हैं। महर्षि अरविन्द ने अपनी पुस्तक भारतीय संस्कृति के आधार में श्री आर्चर की आलोचना को इन शब्दो में लिखा है। उसने भारत के सम्पूर्ण जीवन एवं संस्कृति पर आक्रमण किया था। यहां तक की महान से महान प्राप्तियों, दर्शन, धर्म, काव्य, चित्रकला, मूर्तिकला, उपनिषद, रामायाण, महाभारत आदि सबको एक साथ एक ही कोटि में रखकर सबके बारे में कह डाला कि ये अवर्णनीय बर्बरता का एक घृणास्पद स्तूप है। जिन उपलब्धियों को मिस्टर आर्चर ने निशाना बनाया है हम उन सारी उपलब्धियों को अपनी विरासत मानते हैं, उससे वाबस्ता है। उन महान रचनाओं के विशेषज्ञों की व्याख्याओं का प्रतिसाद करते हैं। जितना हमने जाना है-पढ़ा है-समझा है उसे अपने जीवन में उतारने का प्रयत्न किया है। हम जिस प्रश्न की ओर इशारा करना चाह रहे हैं वह यह है कि जनमानस को उसे पढ़ने, जानने, समझने की संधि ही नहीं मिली। ज्यादातर ग्रंथ संस्कृत में लिखे गये हैं और संस्कृत हमें पढ़ाई नहीं जाती है-हम ऋत को सत्य की रचनात्मक अनुभूति कहा गया है। संस्कृत भाषा के इस शब्द को हम में से बहुत से लोग नहीं जानते। यूरोपीय भाषा समूह में इसके बराबर कोई शब्द हीं नहीं है। तब वे क्‍या समझ पायेंगे इसकी हकीकत को। वैसे हमारे यहां भी इसे अनुभूत करने की ललक दिखाई नहीं देती। जड़ और चेतन से बनी इस संष्षि का संतुलन ही ऋत कहलाता है। जब भी यह संतुलन बिगड़ता है-तभी भूकम्प आता है, सुनामी आता है, अकाल पड़ता है। उसके लायक नहीं है। हमें उसे पढ़ने का अधिकार नहीं दिया गया हमें उन ग्रंथों की कथा सुनायी जाती है। हमें उसका भावार्थ, उसकी व्याख्या, उसके अर्थ-अनर्थ बताये जाते हैं। हम जानना चाहते हैं कि कोई भी ग्रंथ अगर लिखा गया है तो वह पढ़ने के लिए ही तो है और पढ़ने से हमें वंचित किया गया। अब पढ़ना हमारे बस में नहीं रह गया है। हम कुछ पढ़े-लिखे विद्वानों पर ही आश्रित हो गये और अब वे अपने स्वार्थ के लिए उसका उपयोग कर रहे हैं। हमें गुमराह कर रहे हैं। सच बात तो यह भी है कि हम अपने जीवन से ही इतने त्रस्त हैं कि उसका आस्वाद लेना हमारे मन-मस्तिष्क की जरूरत ही नहीं रह गयी हैं। एक बार फिर हम जीवन की ओर लौटना चाह रहे हैं। अब कि बार सामाजिक संरचना, पारिवारिक संकट, व्यक्तिगत आचरण, नौकरी, व्यवसाय, शिक्षा, राजपाट, धर्म और स्त्री की माली हालत पर बात करना चाहेंगे। एक जंगली, बर्बर मनुष्य को एक सभ्य आदमी बनाना ही शायद संस्कृति का सरोकार है। शायद यही हमारी संकल्पना की पराकाष्ठा है। शायद यही हमारी आवश्यकताओं का परम आदर्श है। एक मनुष्य की आवश्यकता उसके जन्म से शुरू होती है। बच्चे की मां स्वस्थ होनी चाहिए। उसके लिए दूध, अन्न की व्यवस्था होनी चाहिए। उसके स्वास्थ्य, उसकी शिक्षा, रोजगार, परिवार, सामाजिक जीवन उसके बाद उसका सौन्दर्य बोध और फिर एक भली-सी मृत्यु भी उसकी आवश्यकता का एक हिस्सा है -सिफ अध्यात्म ही जीने की शर्त नहीं है। मेरे लिए अध्यात्म कोई निर्गुण या अदृश्य फलसफा नहीं है बल्कि सगुण, ठोस और जीवन्त अनुभव है। जब मैं वृक्ष को, पौधों को छूता हूं तो उसकी पत्तियां, फूल- फल मुस्कुराते हैं। उसे सूरज भी देखता है, हवा भी देखती है, पृथ्वी भी देखती है। उन सबके साथ मै उनका हो जाता हूं। मेरी जिम्मेदारियां बढ़ जाती है-वह मेरे सहोदर हो जाते हैं। उनके बीच रहना एक सुखद आनन्द की अनुभूति कराता है। मैं उन्हें उनके नाम से जानना चाहता हूं-उन्हें नाम देना चाहता हूं। उनकी प्रकृति को समझना चाहता हूं। उनके अस्तित्व को जानना चाहता हूं। इस पृथ्वी पर उनके होने को रेखांकित करना चाहता हूं। उनके साथ अपने सम्बन्ध को एक आधार देना चाहता हूं। उनके साथ अपने रिश्ते को कायम रखना चाहता हूं। सब कुछ धराशायी हो जाता है जब कोई वृक्ष को, जंगल को काटता है। जनवरी, २०१२




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