अहंकार | AHANKAR

AHANKAR by अरविन्द गुप्ता - Arvind Guptaप्रेमचंद - Premchand

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प्रेमचंद - Premchand

प्रेमचंद का जन्म ३१ जुलाई १८८० को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। प्रेमचंद की आरंभिक शिक्षा फ़ारसी में हुई। सात वर्ष की अवस्था में उनकी माता तथा चौदह वर्ष की अवस्था में उनके पिता का देहान्त हो गया जिसके कारण उनका प्रारंभिक जीवन संघर्षमय रहा। उनकी बचपन से ही पढ़ने में बहुत रुचि थी। १३ साल की उम्र में ही उन्‍होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्‍यासों से परिचय प्राप्‍त कर लिया। उनक

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१० जो प्रायी इश्वर से यह प्राथवा करे कि-- 'सगवान्‌ सुर, पर ग्राणिमान्न की कुवासनाओं का भार रख दीजिये, में उन सबों का प्रायश्रित करूँगा ।' उसके सयव अन्तःकरण की दुरिच्दराये दुरुवप्नों का रूप घारण कर ले तो कोई आश्रय की बात नहीं । भाषा के ससरमन्ध में कुछ कहना व्यर्थ है। एक तो यह अजुवाद का अनुवाद है, दूसरे फ्रेंच जैसी समुन्नद मापा की पुस्तक का, ओर फिर भलुवादक सी दह प्राणी है जो इस कास में अभ्यस्त नहीं, तिल पर भी दो-तीन स्थर्तों पर पाठकों को क्लेखक की अ्खर छेत्ननी की कुछ भाजक दिखाई देगी। निलियास ने थायल से बिदा लेते समय कितनी ओजरिविनी झोर मरंत्पंशी भाषा सें अपने भावों को प्रकट किया है ! और पापनचाशी के उस समय के मनोद्वार जब उसे थायस के सरने की ख़बर मित्रती है इतने चोटीले हैं कि विदा हृदय को थासे उन्हें पढ़ना किन है ! इन चन्द शब्दों के साथ इम इस पुस्तक को पाठकों की भेंट करते हैं। हमको पूर्ण आशा है कि सुविश इस रसोथान का आनन्द उठायेंगे। इमसे इसका अलुवांद केवल इससिए किया है कि हमें यह पुस्तक स्वोग सुन्दर प्रतीत हुई भौर इमें यह फहने में संकोच वहीं है कि इससे सुन्दर साहित्य इसने अंग्रेज्ञी में नहीं देखा । हम उन लोगों में हैं नो यह धारणा रखते हैं कि भ्रजुवादों से भापा का गोरव चाहे न बढ़े, साहि- त्यिक ज्ञान अवश्य बढ़ता है। एक विद्वान का कथन है कि थायस' ने अतीत फात पर पुनविजय प्राप्त कर लिया है और इस कथन में ल्ेशमाच भी अथ्युक्ति नहीं है | मूत्र पुस्तक में यूनान, मिश्र आदि देशों के इतने नामों भोर घट- नायों का उदल्लेख था कि उन्हें समझने के बिए अलग एक टीका लिखनी पढ़ती | इसलिए हमने यथास्थान कुछ काट-छाँट कर दी है, पर इसका विचार रखा है कि पुस्तक के सारस्प में विध्न न पढ़ने पाये । 'पापनाशी' ,




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