कबीर साखी - संग्रह | KABIR SAHIB KA SAAKHI SANGRAH
श्रेणी : बाल पुस्तकें / Children

लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
46 MB
कुल पष्ठ :
203
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :

कबीरदास - Kabirdas
कबीर या भगत कबीर 15वीं सदी के भारतीय रहस्यवादी कवि और संत थे। वे हिन्दी साहित्य के भक्तिकालीन युग में ज्ञानाश्रयी-निर्गुण शाखा की काव्यधारा के प्रवर्तक थे। इनकी रचनाओं ने हिन्दी प्रदेश के भक्ति आंदोलन को गहरे स्तर तक प्रभावित किया। उनका लेखन सिखों ☬ के आदि ग्रंथ में भी देखने को मिलता है।
वे हिन्दू धर्म व इस्लाम को न मानते हुए धर्म निरपेक्ष थे। उन्होंने सामाज में फैली कुरीतियों, कर्मकांड, अंधविश्वास की निंदा की और सामाजिक बुराइयों की कड़ी आलोचना की थी। उनके जीवनकाल के दौरान हिन्दू और मुसलमान दोनों ने उन्हें अपने विचार के लिए धमकी दी थी।
कबीर पंथ नामक धार्मिक सम्प्रदाय इनकी शिक्षाओं के अनुयायी ह

पुस्तक समूह - Pustak Samuh
No Information available about पुस्तक समूह - Pustak Samuh
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)ई द कबीर खाखी-सब्रंद
गरू तम्हारा कहाँ है, चेला कहाँ रहांयें ।
क्योँ करिके मिलना भ्या, क्यों बिछुड़े आबे जाय
गरू हमारा गगन में, चेला है चित माहि।
सुरत सबंद मेला भया, बिछुड़त कबह नाह ।
बस्त कहाँ ढेँढे कहीं, केहि बिचि आवबे हाथ ।
कहै कबीर तब पाइये, जब भेदी लीजे साथ
मेदी लीन्हा साथ कर, दोन््ही बस्त लखाय ।
काटि जनम का पंथ था, पल म॑ पहुँचा जाय
जल परमाने माछरी, कुल पंरभावे बद्ठि ।
जा का जेसा गुरु मिले, ता का तैसोी सह
यह तन विष को बेलरो, गरू अमत की खान
सीस दिये जे ग॒रु मिले तो भी सस्ता जान
चेतन चौकी बेठ करि, सतगरू दीन्ही थोर।
निरभय है नि:संक भजु, केवल नाम कबीर
बहे बहाये जात थे, लोक बेद के साथ।
पड़े मे सतगरू मिले, दोपक दीन््हा हाथ
दीपक दीन्हा तेल भरि, बाती दुई अचह।
1४७
4
॥9४९॥
। ६०
1६९)
ह्य्ा
है ३४
॥६8१
पूरं किया बिसाहना', बहुरि न आवबे हष्टर ॥६५।।
चापड़ मांड़ी चोाहटे, सारोरे किया सरोर।
सतगरू दाँव बताइया, खेले दास कबीर
ऐसा कोई ना मिला , सत्त नाम का मीत
॥६६॥)
तन मन सौँपे मिरग ज्याँ, सुने बचिक का गीत ॥दह७॥
ऐसे ते खतगुरु मिले, जिन से रहिये लाग
सब ही जग सीतल भया, जबमिदी आपनी आग
कल सन नमन नमक लनन न ननननननन न न -+ +नन नल न कनननननन+ नमन न नमन नननननननननन+ननननननन-++++++-++-+..०५०-............ के
. (१) खरीदारी । (२) बाज़ार. । (३) पासा |
|
॥६६॥
User Reviews
No Reviews | Add Yours...