मित्र संवाद - भाग 1 | MITRA SAMVAD - BHAG 1

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केदारनाथ अग्रवाल -KEDARNATH AGRAWAL

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पुस्तक समूह - Pustak Samuh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका / 17 लिखते हैं, अपने भीतर और आस पास देखकर ही अधिक लिखते हैं | इसके विपरीत मेरे पत्रों में पुस्तक चर्चा बहुत रहती है। मेरी इच्छा रही है कि पढ़ने में जो कुछ मुझे अच्छा लगा है, उसकी जानकारी केदार को भी हो जाये। पर वह काफी पढ़ते हैं; जो पढ़ते हैं, कलाकार के भाव से, सीखते समझते हुए, फालतू चीजें एक तरफ हटाते हुए। मेरे उनके काव्य बोध में अन्तर है, यह आप पत्रों में अनेक जगह देखें गे। उनकी अपनी कविताओं को लेकर मतभेद रहा है। दिनकर, निराला, सूरदास की रचनाओं को लेकर भी मतभेद रहा है कविता से सामाजिक यथार्थ के सम्बन्ध को लेकर, पुरानी साहित्य- परम्पराओं के मूल्यांकन को लेकर, छंद और काव्य शिल्प को लेकर मतभेद रहा है। दो मित्रों के, एक दूसरे की हां में हां मिलाने वालों के, ये पत्र नहीं हैं। जहां भी ऐसे मतभेदों का विवरण है, आज के आलोचकों और कवियों को अपने काम लायक कुछ सामग्री अवश्य मिले गी। पर ये मतभेद गौण हैं। उनसे हमारी मैत्री कभी नहीं डममगायी। जीवन में असह्य दुःख के क्षण भी आते हैं। ऐसे क्षणों में हम सदा एक-दूसरे के पास रहे हैं। व्यक्तिगत रूप में यह मैत्री मेरे लिए कविता से भी अधिक मूल्यवान है। ये पत्र उस मैत्री के साक्षी दस्तावेज़ हैं। हम दोनों में एक बात सामान्य है-बीते दिनों के बारे में हम बहुत कम सोचते हैं। क्या कर रहे हैं, आगे क्या करना है, अधिकतर ध्यान उसी पर केन्द्रित रहता है। हमारी मैत्री का लम्बा इतिहास है, इस पर भी ध्यान कम ही जाता है। लगता है, सारे तथ्य सिमट कर गुणात्मक रूप से भावशक्ति में परिवर्तित हो गए हैं-यह भावशक्ति जो रचनात्मक क्षमता का स्रोत है। इस संग्रह में केदार के कुछ पत्र मेरे भाई मुंशी को लिखे हुए हैं। मुंशी पत्रकार हैं। लोकयुद्ध (फिर जनयुग), हिन्दी टाइम्स जैसे प्रकाशित पत्रों के अलावा वह अनेक हस्तलिखित पत्रों के सम्पादक रहे हैं। हमारे पारिवारिक पत्र सचेतक को निकालते उन्हें दस साल हो गए हैं। केदार इसके नियमित पाठक हैं । उनकी कुछ कविताएं सबसे पहले सचेेतक में छपी हैं। इनमें अपनी मां पर लिखी केदार की कविता विशेष उल्लेखनीय है। मुंशी को लिखे हुए पत्रों में सम्प्रेषण की वेव-लेन्थ दूसरी है, आप पढ़ते ही पहचान लेंगे। मुझसे उपन्यासों की चर्चा शायद ही उन्होंने कभी की हो पर मुंशी के नाम एक पत्र में उन्होंने अपने पढ़े हुए उपन्यासों की चर्चा काफी विस्तार से की है। मुंशी से उपन्यासों की चर्चा और मुझसे नहीं-कारण यह हो सकता है कि मुंशी और केदार दोनों ने उपन्यास शुरू किये, पूरा दोनों में किसी ने नहीं किया।! तब इन्हें आपस 1. केदार का 'पतिया” उपन्यास 1985 में प्रकाशित हुआ था। इसके प्रकाशकीय वक्तव्य के अनुसार उनका अधूरा उपन्यास 'बैल बाजी मार ले गये' शीघ्र प्रकाशित होगा--मुंशी का अधूरा उपन्यास ' दीनू की दुनिया' हमारे परिवारिक पत्र 'सचेतक ' में छप रहा है; पर जिस समय केदार मुंशी से उपन्यासों की चर्चा कर रहे थे, उस समय उनके उपन्यास अप्रकाशित थे।




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