विवेक विवेचन | VIVEK VIVECHNA

VIVEK VIVECHNA by केदारनाथ अग्रवाल -KEDARNATH AGRAWALपुस्तक समूह - Pustak Samuh

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केदारनाथ अग्रवाल -KEDARNATH AGRAWAL

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रेमचन्द की विरासत और प्रगतिशील लेखन / 15 जनता से बचता रहे, राजतन्त्र से कटता रहे और केवल शिल्प और सौन्दर्य के निरर्थक अमूर्त लोक का अजनबी चित्रण करता रहे। सन्‌ 1936 के बाद कथा-साहित्य में इतना अधिक विस्तार से लिखा गया कि उस सबके विषय में मेरे लिए कुछ कहना न्यायोचित न होगा; क्योंकि मैं स्वयं उस सबसे न तो घनिष्ठ रूप से जुड़ा रहा हूँ और न मैंने उस सबको पढ़कर ही मनन-चिन्तन किया है। तिसपर भी मैं यह साधिकार कह सकता हूँ कि कई छोटे-बड़े कहानीकारों और उपन्यासकारों ने प्रेमचन्द के दिखाये मार्ग पर चलकर प्रगतिशील परम्परा को नये जीवन से जोड़ा है और उसकी सूक्ष्म अभिव्यक्ति की है। उनकी कृतियों की सराहना भी लोगों ने की है। इसके विपरीत ऐसा भी बहुत-कुछ कथा-साहित्य में लिखा गया है, जो प्रेमचन्द की विरासत का नहीं कहा जा सकता। केवल मुक्त होकर ऐन्द्रिक प्रभावों की अपनी जीवन-गाथा बनाकर जन-जीवन को गाथा के रूप में प्रस्तुत करना, यह प्रेमचन्द की विरासत के सर्वथा प्रतिकूल पड़ता है, ऐसा मेरा विचार है। महानगरीय मानसिकता की वे तथाकथित कहानियाँ या उपन्यास, जो कामुक चित्रपट की तरह लिपिबद्ध किये जा रहे हैं, वे इस आधार पर स्वीकार योग्य नहीं कहे जा सकते कि उनके कथानक यथार्थ को व्यंजित करते हैं और ऐसी अभिव्यंजना से समाज के कुछेक 'टैबूज' टूटते हैं और जीवन को जीवन के भीतर ही पकड़ा और परखा जाता है और कहानी हो या उपन्यास अपने-आप में कोई उपलब्धि नहीं है। उनके उपलब्धि होने के लिए उन्हें समाज के युगीन दृश्यफलक को प्रगतिशील मानव-मूल्यों से विरचित करके ही प्रकाशित करना चाहिए। ऐसे साहित्यिक सृजन से न तो व्यक्ति अपनी वैयक्तिकता खोता है और न वह एकांगी होता है। वस्तुत: ऐसा साहित्यकार सामाजिक दायित्वबोध से प्रेरित होकर अपनी वैयक्तिक विशिष्टता को सार्वजनिक लोक-चेतना में समाहित करता है और उसे विशाल जन-जीवन का विस्तार देता है। यह कार्य आरोपित कार्य नहीं है। समाजवादी दार्शनिक जीवन-दृष्टि से दुनिया को समझना, जन-जीवन को परत-दर-परत देखना और उनके भीतर से उसी तथ्य को पकड़ना पड़ता है, जो अनेकानेक विसंगतियों और विरूपताओं को जन्म देता रहता है और आदमी को आदमी का विरोधी बनाये रहता है। यही दायित्व है, जिसका निर्वाह वांछनीय है, यही सच्चा लेखन-दधर्म है। प्रगतिशील लेखक प्रेमचन्द की विरासत को आगे बढ़ाते हुए चले आये हैं और इस कर्त्तव्य में अबतक उन्होंने कोई कमी नहीं की है। इसीके परिणामस्वरूप, इधर कई कहानियाँ और उपन्यास प्रकाशित हुए हैं, जिन्हें देखने से पता चलता है कि ग्रामीण जीवन और लोक-जीवन की अभिव्यक्तियाँ भी सशक्त और सजीव रूप से चित्रित हुई हैं। प्रगतिशील लेखक गाँव को भी उतना महत्त्व देता है, जितना नगर या महानगर को देता है। यह जो तथाकथित महानगरीय मानसिकता की ही प्राथमिकता कथा-साहित्य में घोषित की जा रही है और वैसे ही मानसिकता की कृतियों को श्रेष्ठता प्रदान की जा रही है-किसी भी प्रकार से पूर्णतया विवेकसम्मत नहीं कहा जा सकता। शहरी




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