हिन्दी कहानी संग्रह | HINDI KAHANI SANGRAH

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भीष्म साहनी - Bhisham Sahni

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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16 हिन्दी कहानी संग्रह बाद यह सम्पक और अधिक विस्तृत हुआ, अमरीकी, फ्रांसीसी, रूसी, लैटिन अमेरिकी, अफ्रीकी आदि साहित्य अनुवादों द्वारा हम तक पहुँचने लगा। ओर साथ ही साथ विदेशी साहित्य का प्रभाव-दक्षेत्र भी बढ़ने लगा। यूरोप में दूसरा विश्वयुद्ध 1944 में समाप्त हुआ था, तदनन्तर जो साहित्य पश्चिमी यूरोप में लिखा जाने लगा उसका प्रमुख स्वर मोहभंग का स्वर था। बल्कि अस्तित्ववादी रुझान उसी दोर में पाश्चात्य साहित्य में प्रमुखता ग्रहण करने लगा था । निश्चय ही यह दृष्टि युद्ध की विभीषिकः तथा युद्धोत्तर काल की पेची- दगियों से पनपी थी । अब चूंकि हमारे यहाँ भी, सन्‌ 50 के आस-पास एक प्रकार की संशयात्मक दृष्टि पनपने लगी थी, इसलिए लगा कि हमारी स्थिति और पश्चिमी यूरोप की स्थिति में बहुत अन्तर नही है। इसलिए वह दृष्टि हमारे साहित्य मे भी लक्षित होने लगी । अस्तित्ववादी कहानियाँ हमारे यहाँ भी लिखी जाने लगी । अस्तित्वुवादी साहित्य ने हमारे लेखकों के संवेदन को तो झकझोरा पर उसे वह प्रश्रय नहीं मिल सका जो जीवन का अनुभव जुटाता है । मानसिक स्तर पर तो हम उद्वेलित तथा प्रभावित हुए लेकिन जिस अनुभव की वह उपज पश्चिमी यूरोप में रही थी, वेसे अनुभव में से हम नही गुज़रे थे। इसके अतिरिक्त पिछूले दो सौ वर्ष के औद्योगिक जीवन का जो असर उनके समाज पर पड़ा था वह हमारे जीवन में नहीं पाया जाता था, कम-से-कम उस रूप में नहीं, मात्र मानसिक उद्दलन के आधार पर अपनायी जानेवाली दृष्टि, जिसे ठोस अनुभव का आधार प्राप्त न हो, हमें ज्यादा दूर नहीं ले जाती । आज़ादी के बाद उठनेवाली पेचीदगियों के बावजूद हमारा देश एक संघषरत देश था। दो सो साल के उद्योगीकरण का अनुभव हमे प्राप्त नही था, पूंजीवादी व्यवस्था के चरम अन्तविरोधों का भी अनुभव हमें नही हुआ था। हम तो उद्योग के क्षेत्र मे उस समय पदार्पण कर रहे थे, हमारी परम्परा- गत जीवन-प्रणाली---जात-बिराद री, संयुक्त परिवार, साझा लेन-देन आदि---अभी टूटी नही थी, केवल बदलती परिस्थितियों का दबाव महसूस करने लगी थी। जीवन की गति भी हमारे यहाँ बैसी नही थी, जैसी यूरोप म; न वेसी होड़, न वेसी व्यक्तिवादिता, एक-दूसरे का दुःख-सुख बाँट कर हमारे लोग जैसे-तंसे जी रहे थे और भविष्य के प्रति हमने आशा भी नहीं खोयी थी, ऐसी भावना कि हम अंधी गली में पहुँच गये है जिसमें से निकलने का कोई रास्ता नही, ऐसी भावना हमारे यहाँ कदापि नही थी । इसलिए युद्धोत्तर यूरोप के नागरिक की मानसिकता को अपने यहाँ लागू करने की कोशिश स्थिति का अत्यधिक सरलीकरण था । मातउवीय स्थिति की परिकल्पना जैसी यूरोप मे की जा सकती है, वसी इस देश में नह्ो की जा सकती । हमारे देश का नागरिक दिशाहीनता की बात नहीं समझ पायेगा। विशेषकर ऐसे देश का नागरिक जो किसी-न-किसी स्तर पर संघषंरत हो, और जो




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