मानसरोवर भाग 3 | MANSAROVAR PART 3- MUNSHI
श्रेणी : बाल पुस्तकें / Children
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
995 KB
कुल पष्ठ :
174
श्रेणी :
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पुस्तक समूह - Pustak Samuh
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प्रेमचंद - Premchand
प्रेमचंद का जन्म ३१ जुलाई १८८० को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। प्रेमचंद की आरंभिक शिक्षा फ़ारसी में हुई। सात वर्ष की अवस्था में उनकी माता तथा चौदह वर्ष की अवस्था में उनके पिता का देहान्त हो गया जिसके कारण उनका प्रारंभिक जीवन संघर्षमय रहा। उनकी बचपन से ही पढ़ने में बहुत रुचि थी। १३ साल की उम्र में ही उन्होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्यासों से परिचय प्राप्त कर लिया। उनक
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)स्वरुप मेरे सामने प्रकट कर दिया। मुझे क्षमा कीजिए, मुझ पर दया
कीजिए।
यह कहते-कहते वह उनके पैंरों पर गिर पड़ी। आपटे ने उसे उठा लिया और
बोले-ईश्वर के लिए मुझे लज्जित न करो।
मिस जोशी ने गदगद कंठ से कहा---आप इन दुष्टों के हाथ से मेरा उद्धार
कीजिए। मुझे इस योग्य बनाइए कि आपकी विश्वासपात्री बन सकूं। ईश्वर
साक्षी है कि मुझे कभी-कभी अपनी दशा पर कितना दुख होता है। मैं बार-
बार चेष्टा करती हूं कि अपनी दशा सुधारु;इस विलासिता के जात्र को तोड़
दूं,जो मेरी आत्मा को चारों तरफ से जकड़े हुए है, पर दुर्बल आत्मा अपने
निश्चय पर स्थित नहीं रहती। मेरा पाल्नन-पोषण जिस ढंग से हुआ, उसका यह
परिणाम होना स्वाभाविक-सा मालूम होता है। मेरी उच्च शिक्षा ने गृहिणी-
जीवन से मेरे मन में घृणा पैदा कर दी। मुझे किसी पुरुष के अधीन रहने
का विचार अस्वाभाविक जान पउता था। मैं गृहिणी की जिम्मेदारियों और
चिंताओं को अपनी मानसिक स्वाधीनता के लिए विष-तुल्य समझती थी। मैं
तर्कबुद्धि से अपने स्त्रीत्व को मिटा देना चाहती थी, मैं पुरुषों की भांति स्वतंत्र
रहना चाहती थी। क्यों किसी की पांबद होकर रहूं? क्यों अपनी इच्छाओं को
किसी व्यक्ति के सांचे में ढालू? क्यों किसी को यह अधिकार दूं कि तुमने
यह क्यों किया, वह क्यों किया? दाम्पत्य मेरी निगाह में तुच्छ वस्तु थी।
अपने माता-पिता की आलोचना करना मेरे लिए अचित नहीं, ईश्वर उन्हें
सदगति दे, उनकी राय किसी बात पर न मिलती थी। पिता विद्वान थे, माता
के लिए “काला अक्षर भैंस बराबर' था। उनमें रात-दिन वाद-विवाद होता रहता
था। पिताजी ऐसी स्त्री से विवाह हो जाना अपने जीवन का सबसे बड़ा
दुर्भाग्य समझते थे। वह यह कहते कभी न थकते थे कि तुम मेरे पांव की बेड़ी
बन गयीं, नहीं तो मैं न जाने कहां उड़कर पहुंचा होता। उनके विचार मे सारा
दोष माता की अशिक्षा के सिर था। वह अपनी एकमात्र पुत्री को मूर्खा माता से
संसर्ग से दूररखना चाहते थे। माता कभी मुझसे कुछ कहती तो पिताजी उन
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