रविंद्रनाथ का शिक्षा दर्शन | RABINDRANATH KA SHIKSHA DARSHAN
श्रेणी : बाल पुस्तकें / Children
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
80
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक समूह - Pustak Samuh
No Information available about पुस्तक समूह - Pustak Samuh
रवीन्द्रनाथ टैगोर - Ravindranath Tagore
No Information available about रवीन्द्रनाथ टैगोर - Ravindranath Tagore
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)रवींद्रनाथ का शिक्षादर्शन
गहरी रुचि जाहिर करते हुए अंवनींद्रनाथ को पत्र लिखा । रवींद्रनाथ की अनेक कविताओं
का अंग्रेजी अनुवाद उन्हें भेजा गया । उसी समय दार्शनिक ब्रजेंद्रनाथ सील भी एक सम्मेलन
में भाग लेने के लिए इंगलेंड पहुंचे हुए थे। जब उन्होंने रवींद्रनाथ के कार्यों में विशिष्ट
लोगों की रुचि देखी तो उन्होंने रवींद्रनाथ से इंगलैंड आने का अनुरोध किया ।
.. रवींद्रनाथ जून 1912 में इंगलैंड पहुंचे । उनके साथ रथींद्रनाथ और पृत्रवधु प्रतिमा
देवी थीं। रोथेंस्टीन पहली बार रवींद्रनाथ से 1911 में कलकत्ता में मिले थे । हालांकि तभी
उन्होंने उनके व्यक्तित्व का आकर्षण महसूस किया था लेकिन उनकी प्रतिभा का तब
उन्हें कोई अंदाजा नहीं था। रवींद्रनाथ ने रोथेंस्टीन को अपनी कविताओं का स्वयंकृत
अनुवाद पढ़ने को दिया । रोथेंस्टीन के घर पर धीरे-धीरे रवींद्रनाथ अनेक अंग्रेज कवियों
और बुद्धिजीवियों के संपर्क में आए। इनमें सर्वाधिक उल्लेखनीय दो लोग थे। एक तो
थेकवि डब्ल्यू.वी.येट्स जिनकी लिखी गीतांजलि की भूमिका ने रवींद्रनाथ की तरफ पश्चिम
का ध्यान आकर्षित करने में बड़ी भूमिका निभाई । दूसरे थे सी.एफ. एंड्ररूज जो रवींद्रनाथ
और गांधी जी के परम प्रशंसक बने। येट्स ने रवींद्रनाथ की कविताएं पढ़ीं और उन्हें
संदेह हुआ कि एक महान कवि उदित हो चुका है। इसके बाद इंडिया सोसाइटी ने
'गीतांजलि” का एक संस्करण छापा । 'चित्रांगदा', 'मालिनी' और 'डाकघर' के भी अनुवाद
हुए । रवींद्रनाथ को एक महान कवि और बुद्धिजीवी के रूप में स्वीकार किया जाने लगा ।
रवींद्रनाथ इंगलैंड से अमरीका गए। रथींद्रनाथ अरबाना में इलिनाय विश्वविद्यालय
के छात्र थे। इसके कारण रवींद्रनाथ और विश्वविद्यालय के कुछ अध्यापकों के बीच
चिट्ठी-पत्री हुई थी। स्वभावतः, रवींद्रनाथ को उस देश के अनेक हिस्सों से भाषण देने
का निमंत्रण मिला । साधना' (1919) में संग्रहित इन भाषणों में उन्होंने अपने को केवल
एक कवि के रूप में प्रस्तुत नहीं किया बल्कि इनमें उनके भीतर का मनीषी, बुद्धिजीवी
और दार्शनिक प्रकट हुआ है। अमरीका से लौटकर इंगलैंड में उन्होंने भाषणों की एक
श्रृंखला प्रस्तुत की । अक्तूबर 1913 में वे भारत लौट आए।
नवंबर में खबर आई कि विश्व का सबसे बड़ा साहित्यिक पुरस्कार, नोबेल पुरस्कार
रवींद्रनाथ को प्राप्त हुआ है।
1916 में रवींद्रनाथ पुनः विदेश गए । हालांकि “गीतिमाल्य” और “गीताली” (1914)
गीतांजलि' की ही शैली में लिखे गए हैं लेकिन आश्चर्यजनक रूप से रवींद्रनाथ के
सृजनात्मक जीवन की दिशा में इस समय एक और मोड़ आया । प्रमथ चौधुरी द्वारा संपादित
पत्रिका 'सबुजपत्र' ने इस परिवर्तन के लिए अवसर प्रदान किया । बैशाख 1521 बंगाब्द
में देसी बानी में प्रगतिशील विचारों के वादे के साथ “संबुजपत्र' का प्रकाशन शुरू हुआ ।
रवींद्रनाथ की जो कविताएं इस पत्रिका में प्रकाशित हुईं, वे बाद में 'बलाका' में संग्रहित
डेट
संक्षिप्त जीवन परिचय
हुईं । वे गीतांजलि' के आध्यात्मिक वातावरण से बाहर निकल आए और इन कविताओं
में जीवन की सारभूत गत्यात्मकता का विचार अभिव्यक्त हुआ | लगता है उनकी विदेश
यात्राओं से इस तरह के विचार उनके मानस की सतह पर उभर आए। “चतुरंग” (1916),
धरे बाइरे! (1916) जैसे उपन्यास 'सबुजपत्र” में धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुए । इनमें
रवींद्रनाथ के दृष्टिकोण में नया परिवर्तन प्रकट हुआ रवींद्रनाथ के मानस के विकास
का यह एक महत्वपूर्ण चरण है साथ ही बंगला साहित्य में एक महत्वपूर्ण योगदान भी ।
1916 में ही प्रकाशित .फाल्गुनी” में रवींद्रनाथ ने 'बलाका' में कविता के माध्यम से
प्रतिपादित जीवनदर्शन को नाटक का रूप प्रदान किया।
1916 में जापान जाने से पहले रवींद्रनाथ विभिन्न जगहों पर घूम चुके थे | वे सियालदह
के ग्रामीण पुनर्निर्माण के काम से भी जुड़े हुए थे। विश्व द्वारा सम्मानित पूरी दुनिया के
कवि के दिमाग में उसके अपने लोग- जड़, क्षीणकाय और मूक लोग अब भी बसे हुए
थे। वे जापान गए, फिर जापान से अमरीका गए और मार्च 1917 तक तकरीबन दस
महीने वे देश के बाहर रहे । इस यात्रा के बाद उन्होंने कई चीजों के बारे में फिर से
सोचना शुरू किया । इस यात्रा में उनके साथ भारत को चाहने वाले दो इंगलैंडवासी मित्र
विलियम पियर्सन और एंड्रूज थे । इन लोगों के अतिरिक्त इस पार्टी के साथ नौजवान
कलाकार मुकुल डे भी थे।
जापान में उन्होंने राष्ट्रवाद का उन््माद देखा | तकरीबन डेढ़ दशक पहले कलकत्ता
में ओकाकुरा के जरिए जापानी सांस्कृतिक जीवन से पहली बार वे परिचित हुए थे और
इसके शिष्ट पहलुओं से प्रभावित हुए थे । लैकिन एक बार जापान की धरती पर उत्तरने
के बाद वे युद्धोन्माद के बारे में सचेत हो गए। इसी कारण उन्होंने एक के बाद एक
'नेशनलिज्म' के लेख उसी समय से लिखना शुरू किया और इन्हें अमरीका में भी पढ़ा ।
'परसनिलिटी” (1917) नामक संग्रह में उनके द्वारा अपेक्षित शिक्षा के आदर्श, वैयक्तिकता
की प्रकृति, व्यक्ति और विश्व के बीच संबंध जैसे विषयों पर अमरीका में दिए गए उनके
भाषण संकलित हैं | अमरीकी जीवन पद्धति से उनके परिचय ने एक नए विचार को जन्म
दिया। उन्हें लगा कि जिस दुनिया के आरपार लगातार वे घूम रहे हैं उसकी पंक्ति में
अपने देश को भी खड़ा किया जाना चाहिए। ऐक्यबद्धता का यह कार्य शांतिनिकेतन
में ही संपन्न हो सकता था । राष्ट्रवाद के अंधेपन ने मनुष्य को कल्याणकारी पथ से विरत
कर दिया था। पुनः एकता के जरिए ही उसे वापस लाया जा सकता था । शिकागो से
लिखे 1916 के एक पत्र में विश्वभारती से वे क्या-क्या अपेक्षाएं रखते थे उनके पहले
संकेत हमें प्राप्त होते हैं। इस विचार ने उनके दिमाग में उस समय जड़ जमाई जब यूरोप
युद्धोन्माद से ग्रस्त था।
हक
User Reviews
No Reviews | Add Yours...