बौध्द दर्शन | BAUDH DARSHAN

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राहुल सांकृत्यायन - Rahul Sankrityayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आत्माकों नित्य न मानना | गौतम बुद्ध ७ हो, भयके रगमें रंग जाता है । यदि एक क्षण ही सॉँपको देख हमे रुक जाना हो, तो भी हिलाकर छोड़ दिये पहियेकी भाँति कई क्षण तक एक- एकके वाद उत्पन्न होनेवाला मन उस रगमे रंग जावगा; यद्यपि' हर द्ितीय क्षणके मनपर उसका असर फीका पडता जायगा। और यदि साँप कई क्षणों तक दिखाई देता रहा, और आपकी तरफ भी आता रहा, तो क्षण- क्षणपर उत्पन्न होनेवाले मनपर भयका सचार अधिक होता जायगा | जो वात भयप्रद विपयोंके वारेमे हैँ, वही प्रीतिप्रद तथा दूसरे विययोके बारेमें भी समभनी चाहिए। अस्तु, उक्त कारणने चक्षु आदि इन्द्रियोके अतिरिक्त हमें उनके सयोजक एक भीतरी इन्द्रियको माननेंकी जरूरत पइती है, णिसे मन कहते हे । इससे परे आत्माकी क्या आ्रावग्यकता ? यदि कहे कि पुराने अनुभवोको स्मृतिके रूपमे रखनेके लिए, क्योकि मन तो क्षणिक हैं (यद्यपि यह बात वे नहीं कह सकते, जिनके मतसे मन क्षणिक नहीं), तो हम कहेगे--मन क्षणिक है, किन्तु वह श्रपने परवर्ती मनका कारण भी है । झानुवणिक नियमके अनुसार जैसे माता-पिताकी बहुत-सी वाले पुत्र- पौन्रमे आती हे, उसी प्रकार पूर्व मन अपने अनुभवोका वीज या सस्कार पिछले मनके लिए वरासतमे छोड जाता है, और वही स्मृतिका कारण हैं। वस्तुत सस्कारका ठप्पा तो क्षणिक वस्तुपर ही लग सकता । आात्मा- को यदि कूटस्थ नित्य माने, तो वह श्रनन्‍्तत काल तक एक रस रहनेवाली होगी । भला, सदाके लिए एक रस रहनेवाले आत्मापर अनुभवोका ठप्पा कैसे पड सकता है ? यदि पड सकता है, तो ठप्पा पठते ही उसका रूप-परिवर्तन हो जायगा । आत्मा कोई जउ पदार्थ नहीं हूँ, जिश्के सिर्फ बाह्य अवयवपर ही लाछन लगेगा। वह तो चेतनमय हैँ, इसलिए ऐसी अ्रवस्थामे इन्द्रिय-जनित ज्ञान उसमें सर्वत्र प्रविष्ट हो जायगा। फिर वह राग, हेष, मोह---ताना प्रकारोमेसे किसी एक रूपवाला हो जायगा । तब फिर बह वही ब्रात्मा नही हो सकता, जो ठप्पा लगनसे पहले था। अतएव वह एक रस भी नहीं हो सकता। फिर आत्मा नित्य हूँ कैसे ?




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