घहराती घटाएं | GEHRATI GHATAYEN

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महाश्वेता देवी - Mahashveta Devi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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30. घहराती घटाएँ दारू के नशे में बैठ हँसी-मज़ाक में ठोड़ी पकड़ कर “दुलारा' और ' लाल कहना तो बेमानी न होता । महुए के नशे में आदमी बोतल को ला कहकर चूम लेता है | सुनसान रास्ते पर मृतप्राय समवयस हाल दम के लिए 'दुलारा' और 'लाल' कहना बहुत ही व्यंजक होता है। इस ०2241 को केवल आसमान, पेड़ और सड़क सुनते | जगमोहन भट्टी की तरह फों: फों स छोड़ते हुए चलता रहता । हे के 17 दल का टणह है । वह कुलियों की बस्ती है। वहाँ हा के पेड़ हैं। 'थोड़ा पानी मिलेगा, भैया ? थोड़ा पानी ! हाथी के लिए ? “इंजन का पानी लो ।/ गरम है ?' “नहीं, लेकिन. . .।' _ धो के स्वाद का बेसवाद पानी चहत्रच्चों में भरा था । स्टेशन में आग लगने पर बुझाने के लिए था | जगमोहन ने पानी पिया । यहाँ क्‍या नदी या ताल है ?* “कहाँ ? पानी मिलता ही नहीं ।' 'क्या धारा भी नहीं है ?” 'पतरा में देखो ।' 'ये पीपल का पेड़ किसका है ?' 'दीसन के जमीन में है ।' जगमोहत का लंच अरहा में बरगद के पत्तों का हुआ चार मील दूर पतरा के नाले में स्तान हुआ। डिनर के लिए वड़हाई लौटना हुआ। लेकिन डीजल इंजन की सीटी से जगमोहनत थर्रा गया । फिर चलना हुआ। टाहाड़ा-नालिगातू- जुझा रो-सागु-मोच रा---एक के बाद एक जगह। रु इस तरह यह चलते-चलते ही एक दित सहसा और कोई राह न रहने पर, सब रास्ते समाप्त होने पर जगमोहन मर जायेगा। बुलाकी यह जानता था| वही डर अब उस पर छाया रहता | वह्‌ मौत भी बिलकुल चुपचाप चाप आयेगी | प्राय: मिटे हुए दो बिन्‍्दुओं में एक की अच्तिम विलुष्ति । भुय। काका बाद ? शून्यता, शून्यता, शूल्यत। ? चलो जगमोहन, मेरे लाल, मेरे यार ! हेहेगड़ा-हेहेगड़ा जगमोहन --कोमान्डी 'कोमान्डी । जगमोहन की मृत्यु. 31 बुलाकी जान भी न सका कि जगमोहन क्या घटनावली उत्पन्त कर ४गा और सतहत्तर के अक्टूबर में वह बुरुडिहा नामक गाँव के पास के जंगल में घुसा । दो बुरुडिहा गाँव के मानव मानचित्र और प्राकृतिक विवरणवृत्त की इस कहानी के लिए बहुत ज़रूरत है। गाँव के नाम से ही प्रमाणित होता है कि गाँव आदिवासी है। आदि- वासियों से कभी बसे ग्राम के मानव मानचित्र में परिवर्तन बहुत समय पहले हो गया। गाँव में रहने वाले आदिवासियों की ज़मीन पर अधिकार प्रायः ग़रीवों का था । गाँव में सात सौ लोग रहते हैं। एक सौ चार परिवार हैं। अधिकांश परिवार गंजू जाति के लोगों के हैं। गाँव वास्तव में ग्ंजू लोगों का था । उसके बाद पारसनाथ और बनारसीदास--दो लाला आ गये। धीरे- धीरे कुछ और लाला आकर रहने लगे कुछ रैदास थे। दो घर धोबी और नाई थे। लाला लोगों ने स्वभावत: ही गंजू लोगों की ज़मीन-जायदाद हथियाकर गाँव को अपने सहारे कर दिया। गाँव में उनका महाजनी कारो- बार था और सरकारी लाइसेंस का ताड़ीखाना भी उनका था। कपड़ों और परचून का रोजगार था। बुरुडिहा दुकान चलाने लायक़ ठीक गाँव न था। लेकिन बुरुडिहा इस अंचल की सबसे बड़ी हाट की जगह था। यहाँ सोमवार और शुक्रवार को बड़ी हाट लगती | मिर्च, प्याज़, धनिया आदि की बित्री होती । मौसम के साग-सब्जी और फल विकते । वुरुडिहा के पास ही, केवल मील-भर दर, भालातोड़ था। वह गले का बड़ा बाज्ञार था। वहाँ वैष्णव मंडली का मठ और अस्पताल है। आदिवासी विकास दफ्तर की शाखा और पुलिस- स्टेशन है। बुरूडिहा, भालातोड़--ये सब जगहें रोडवेज से जुड़ी हुई हैं, रेलवे से नहीं। इन लाला लोगों ने मिश्र को लाकर ज़मीन देकर बसाया। धीरे-धीरे




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