शवयात्रा | SHAVYATRA
श्रेणी : बाल पुस्तकें / Children
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
72 KB
कुल पष्ठ :
7
श्रेणी :
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लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
ओमप्रकाश वाल्मीकि - Omprakash Valmiki
जन्म: 30 जून, 1950, बरला, जिला मुजफ्फरनगर, उत्तर प्रदेश
शिक्षा: एम.ए. (हिन्दी साहित्य)
प्रकाशित कृतियाँ: सदियों का संताप, बस्स! बहुत हो चुका, अब और नहीं (कविता संग्रह); जूठन (आत्मकथा) अंग्रेजी, जर्मन, स्वीडिश, पंजाबी, तमिल, मलयालम, कन्नड़, तेलगू में अनूदित एवं प्रकाशित। सलाम, घुसपैठिए (कहानी संग्रह), दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, मुख्यधारा और दलित साहित्य, सफाई देवता (सामाजिक अध्ययन), दलित साहित्य: अनुभव, संघर्ष और यथार्थ, ।उउं ंदक वजीमत ैजवतपमे, चयनित कविताएँ। अनुवाद: सायरन का शहर (अरुण काले) कविता संग्रह का मराठी से हिन्दी में अनुवाद, मैं हिन्दू क्यों नहीं (कांचा एलैया) की अंग्रेजी पुस्तक
पुस्तक समूह - Pustak Samuh
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)शवयात्रा 31
बाप-दादों की है। जिस हाल में हो... रहते रहो... किसी को एतराज नहीं होगा।
सिर उठा के खड़ा होने की कोशिश करोगे तो गाँव से बाहर कर देंगे।”
बलराम सिंह का एक-एक शब्द बुझे तीर की तरह सुरजा के जिस्म को
छलनी-छलनी कर गया था। सुरजा की आँखों के सामने जिन्दगी के खट्टे-मीठे
दिन नाचने लगे। जैसे कल ही की बात हो। क्या नहीं किया सुरजा ने इस गाँव
के लिए, और बलराम चुनाव के दिनों में एक-एक वोट के लिए कैसे मिन्नतें
करता था, तब सुरजा बल्हार नहीं, सुरजा ताऊ हो जाता था। सुरजा ने एक सर्द
साँस छोड़ी। बिना कोई जवाब दिए वापस चल दिया। बलराम सिंह ने आवाज
देकर रोकना चाहा। लेकिन वह रुका नहीं। बलराम सिंह की चीख अब गालियों
में बदल गई, जो बाहर तक सुनाई पड़ रही थी।
घर पहुँचते ही सुरजा ने कललन से कहा, “तू सच कहवे था कल्लू.... यो
गाँव रहणे लायक ना है।” उसकी लम्बी मुँछें गुस्से में फड़फड़ा रही थीं। आँखों
के कोर भीगे हुए थे।
“बापू, अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा... ये ईंटें तो कोई भी खरीद लेगा, ये
मकान बनने नहीं देंगे,” कल्लन ने सुरजा को समझाने की कोशिश की। लेकिन
सुरजा ने भी जिद पकड़ ली थी, वह झुकेगा नहीं। जो होगा देखा जाएगा। उसने
मन ही मन दोहराया।
“ना, बेट्टे, मकान तो ईब बणके रहवेगा.... जान दे दूँगा, पर यो गाँव
छोड़के ना जाऊँगा,” सुरजा के गहरे आत्मविश्वास से कहा।
कल्लन अजीब-सी दुविधा में फेस गया था। भावावेश में आकर वह इईटें तो
ले आया था, पर गाँव के हालात देखकर उसे डर लग रहा था। कहीं कोई बवेला
न उठ खड़ा हो। पत्नी सरोज और बेटी सलोनी साथ आ गए थे। लेकिन सलोनी
को यहाँ आते ही बुखार हो गया था। सरोज के पास जो दो-चार गोलियाँ थीं,
वे दे दी थीं सलोनी को। लेकिन बुखार कम नहीं हुआ था। सरोज का मन घबरा
32 श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ (1990-2000)
रहा था। वह लगातार कल्लन से जाने की जिद कर रही थी, “बेकार यहाँ मकान
पर पैसा लगा रहे हो। सन््तो हमारे संग रहेगी। बापू को समझाओ।” लेकिन
कल्लन सुरजा को समझाने में असमर्थ था। उसने सरोज से कहा, “अब, आखिरी
बखत में बापू का जी दुखाना क्या ठीक होगा?” सरोज चुप हो गई थी।
सुरजा ने रात-भर जागकर ईंटों की रखवाली की थी। एक पल के लिए भी
आँखें नहीं झपकी थीं सुबह होते ही वह साबिर मिस्तरी को बुलाने चल दिया था।
सुरजा को डर था, कहीं कोई उसे उलटी-सीधी पट्टी न पढ़ा दे, उसे अब किसी
पर भी विश्वास नहीं था।
सलोनी का बुखार कम नहीं हो रहा था। सरोज ने कल्लन से किसी डॉक्टर
को बुलाने के लिए कहा। गाँव-भर में सिर्फ एक डॉक्टर था। कल््लन उसे ही
बुलाने के लिए चल दिया।
कल्लन को देखते ही डॉक्टर ने मना कर दिया। सामान्य पूछताछ करके कुछ
गोलियाँ पुड़िया में बांधकर दे दी। कल्लन ने बहुत मिन्नतें कीं, “डाक्टर साहब,
एक बार चल के तो देख लो?” डॉक्टर टस से मस नहीं हुआ। कल्लन ने कहा,
“मरीज को यहीं आपके क्लीनिक में लेकर आ जाता हूं।”
“नहीं.... यहां मत लाना... कल से मेरी दुकान ही बंद हो जाएगी। यह मत
भूलो तुम बल्हार हो,” डॉक्टर ने साफ-साफ चेतावनी दी, 'ये दवा उसे खिला
दो, ठीक हो जाएगी।”
कल्लन निराश लौट आया था। डॉक्टर ने जो गोलियां दी थीं, वे भी
असरहीन थीं। बुखार से बदन तप रहा था। तेज बुखार के कारण वह लगातार
बड़बड़ा रही थी। सन्तो उसकी सेवा-टहल में लगी थी। एक मिनट के लिए भी
वहाँ से नहीं हटी थी। सरोज की चिन्ता बढ़ रही थी। उसके मन में तरह-तरह
की शंकाएँ उठ रही थीं।
सुरजा सुबह का गया दोपहर बाद लौटा था। थका-हारा, हताश। उसे इस
हाल में देखकर कल्लन ने पूछा “क्या हुआ बापू?” सुरजा ने निढाल स्वर में
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