गजाहों के गाँव का लोकतंत्र | GAJHON KE GAON KA LOKTANTRA
श्रेणी : बाल पुस्तकें / Children
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
138 KB
कुल पष्ठ :
6
श्रेणी :
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श्रीलाल शुक्ल - Shrilal Shukl
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)8/11॥/2016
पहलवान ने कहा, 'लौंडे तुम्हें दिन-रात बेवकूफ बनाते रहते हैं। तब तुम क्या करते हो? यही न कि चुपचाप बेवकूफ
बन जाते हो?
प्रिंसिपल साहब ने पढ़े-लिखे आदमी की तरह समझाते हुए कहा, 'हाँ भाई, प्रजातंत्र है। इसमें तो सब जगह इसी
तरह होता है।' सनीचर को जोश दिलाते हुए वे बोले, 'शाबाश, सनीचर, हो जाओ तैयार!' यह कह कर उन्होंने 'चढ़
जा बेटा सूली पर' वाले अंदाज से सनीचर की ओर देखा। उसका सिर हिलना बंद हो गया था।
प्रिंसिपल ने आखिरी धक्का दिया, 'प्रधान कोई गबड़-घुसड़ ही हो सकता है। भारी ओहदा है। पूरे गाँव की जायदाद
का मालिक! चाहे तो सारे गाँव को 107 में चालान करके बंद कर दे। बड़े-बड़े अफसर आ कर उसके दरवाजे बैठते
हैं! जिसकी चुगली खा दे, उसका बैठना मुश्किल। कागज पर जरा-सी मोहर मार दी और जब चाहा, मनमाना तेल-
शक्कर निकाल लिया। गाँव में उसके हुकुम के बिना कोई अपने घूरे पर कूड़ा तक नहीं डाल सकता। सब उससे
सलाह ले कर चलते हैं। सब की कुंजी उसके पास है। हर लावारिस का वही वारिस है। क्या समझे?'
रंगनाथ को ये बातें आदर्शवाद से कुछ गिरी हुई जान पड़ रही थीं। उसने कहा, 'तुम तो मास्टर साहब, प्रधान को
पूरा डाकू बनाए दे रहे हो।'
हैं-हैं-हैं' कह कर प्रिंसिपल ने ऐसा प्रकट किया जैसे वे जान-बूझ कर ऐसी मूर्खतापूर्ण बातें कर रहे हों। यह उनका
ढंग था, जिसके द्वारा बेवकूफी करते-करते वे अपने श्रोताओं को यह भी जता देते थे कि मैं अपनी बेवकूफी से
परिचित हूँ और इसलिए बेवकूफ नहीं हूँ।
हैं-हैं-है, रंगनाथ बाबू! आपने भी क्या सोच लिया? मैं तो मौजूदा प्रधान की बातें बता रहा था।'
रंगनाथ ने प्रिंसिपल को गौर से देखा। यह आदमी अपनी बेवकूफी को भी अपने दुश्मन के ऊपर ठोंक कर उसे
बदनाम कर रहा है। समझदारी के हथियार से तो अपने विरोधियों को सभी मारते हैं, पर यहाँ बेवकृफी के हथियार
से विरोधी को उखाड़ा जा रहा है। थोड़ी देर के लिए खन्ना मास्टर और उनके साथियों के बारे में वह निराश हो
गया। उसने समझ लिया कि प्रिंसिपल का म॒क़ाबला करने के लिए कछ और मँजे हए खिलाड़ी की जरूरत है।
सनिचर कह रहा था, 'पर बद्री भैया, इतने बड़े-बड़े हाकिम प्रधान के दरवाज़े पर आते हैं ... अपना तो कोई दरवाजा
ही नहीं है; देख तो रहे हो वह टटहा छप्पर!'
4/6
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