भारतीय शिक्षा का इतिहास | BHARTIYA SHIKSHA KA ITIHAS
श्रेणी : बाल पुस्तकें / Children
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
21 MB
कुल पष्ठ :
228
श्रेणी :
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जे० पी० नाइक - J. P. NAIK
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सैयद नुरुल्ला - SAIYAD NURULLA
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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भारतीय शिक्षा का इतिहास
था जिनके बालकों को वह पढ़ाता था। लोग और उनके परिवार उसका सदा
आदर करते थे और धनी व्यक्ति उसे दूसरों से अधिक नकदी और माल दोनों
ही चीजें देते थे । केवल कह देने से उसे अपने शिष्यों के माता पिता से भोजन प्राप्त
हो सकता था। अपने शिष्यों के विवाहोत्सवों पर, जिनकी संख्या बाल विवाह के
उस काल में कम नहीं होती थी, उसे पर्याप्त उपहार मिलते थे और वह अपना
आशीर्वाद देता था।
अहमदाबाद प्रतिवेदन में कहा गया है कि “विद्यालय के अध्यापक को उसकी अपनी
जाति के लोगों द्वारा आयोजित सभी भोजों में निरपवाद रूप से बुलाया जाता है
ओर उसकी निश्चित और सुस्थापित आय के अतिरिक्त उसे सामान्यतः दशहरा,
दिवाली और अन्य पर्वो पर अपने गांव के धनी लोगों से पर्याप्त उपहार मिलते हैं ।
. ॥ह एक सामान्य प्रथा है कि जब कोई बारात विद्यालय के सामने से गुजरती है
तो विद्यालय के अध्यापक को कुछ धन भेंट किया जाता है और लड़कों को छठी
दिलाई जाती है। पता चला है कि कर्नाटक में भी एक ऐसी ही प्रथा है। वहां
अध्यापक को त्योहार और हएष॑ के अवसरों पर इसी प्रकार प्रेम और सम्मान के
साथ स्मरण किया जाता है।”
अध्यापकों की शैक्षिक उपलब्धियां भी
वी० परुलेकर ने कहा है : क्
उस काल में सामान्य प्रारंभिक विद्यालयों में जो अध्यापक पढ़ाते थे उनसे पढ़ने,
लिखने और अंकगणित का आरंभिक ज्ञान कराने की अपेक्षा की जाती थी ।
पहाड़ों तथा लंबे और जटिल कऋ्रमविन्यास वाली अन्य सारणियों का ज्ञान होना
प्रत्येक अध्यापक के लिए
अनिवार्य था। उसके अतिरिक्त संतोषजनक सुलेख और
साधारण लेख को पढ़ने की योग्यता बिद्यालय के सामान्य अध्यापक की
न्यूनतम
उपलब्धियां होती थीं। अत: इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है कि गुजरात से
आ्राप्त एक रिपोर्ट में कहा गया है कि अध्यापक अज्ञानी हैं और वास्तव में उन्हें भी _
पुस्तक से स्वयं लड़कों के समान ही ज्ञानाजन करना हर
(ग) विद्यार्थो : प्रारंभिक विद्यालयों के विद्यार्थी, हरिजनों को छोड़कर, हिंदुओं की
सभी जातियों के थे। उनमें लगभग 30 प्रतिशत ब्राह्मण होते थे | विद्यालयों में विद्या-
थियों को अधिक संख्या में पढ़ने भेजने ब्राली अन्य जातियां बानी, प्रभु, सुनार और
बनिया थीं। कुल विद्यार्थियों में से लगभग 70 प्रतिशत विद्यार्थी उच्च समुंदायों के होते
थे। उनकी आयु 6 से 14 वर्ष तक होती थी औ
अवधि गुजरात में लगभग 2 या 3 वर्ष और अन्य
बहुत असंतोषजनक थीं। जैसा श्री आर०
र उनके विद्यालय जीवन की औसत
क्षेत्रों में लगभग 3 या 4 वर्ष थी।
1. आरण० बी० पहलेकर : ए सोर्स बुक आफ हिस्ट्री आफ एजुकेशन इन दि बांबे प्राविस, भाग ] ।॒
सर्वे आफ इंडीजीनस एजूकेशन (1820-30) प्०]रऋ।
2, वही |.
उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ में भारत में देशी शिक्षा
11
| ं और
-(घ) पाठयचर्या और अध्यापन प्रणालियां : प्रारंभिक विद्यालय पढ़ने, लिखने
गणित के प्राथमिक सिद्धांतों की शिक्षा देते थे । विद्याश्रियों को अर कप आओ
विविध प्रकार की गुणन सारणियां सिखाई जाती थीं कि वे देनिक जीवन? सा के पा
काम में आने वाले सभी प्रकार के प्रश्नों को आय पे हक होगा
हुई |] ल अभाव था। विद्य है
बा हे बी तो बहुत सादा और अनगढ़ होता था। विद्यार्थियों को
। ;ड दिए जाते थे । है
(ड) तक प्रांत के सावंजनिक विद्यालयों में किसी छात्रा के पढ़ने का ९8
नहीं मिलता है। ऐसा किसी जल्दबाजी अथवा भूलचूक के कारण नहीं हुआ है स्
समय के सार्वजनिक विद्यालय केवल लड़कों के लिए ही होते थे ह नमक
(च) गृह शिक्षा : यद्यपि बंबई के प्रतिवेदनों में कि के विभिन्न भाग न् हर से
पद्धति विद्यमान होने के छुटपुट उल्लेख मिलते हैं तथापि उनमें इस पद्धति प
विचार किया गया है और न इसका कोई ब्यौरा ही शा गया है। लि
(छ) मुसलमानों की शिक्षा : अनेक देशी विद्यालयों में केवल मन आपका आह
और इन विद्यालयों की देखरेख भी मुसलमान अध्यापक ही करते थे । कुंछ गे 12४
की शिक्षा भी दी जाती थी। कई जगह मुसलमान साधारण हिंदू विद्यालय हे
पे उच्च शिक्षा के 1हदू विद्यालय : कुछ प्रतिवेदनों में उच्च शिक्षा के हिंदू विद्यालयों
हा है । अहमदनगर में ऐसे 16 के लय शक पूना नगर में (सभी प्रकार की
ण संस्थाओं में से ) 164 विद्यालय । ह
बज लाल ( बा ) यह का 1823-25 की जाँचों से भिन्न क् थीं क्योंकि अब
सचना जिलाधीशों को माफेत नहीं वरन जिला न्यायाधीशों की मार्फत मांगी गई थी । हे द
जांच से पता चलता है कि 46,81,735 जनसंख्या के लिए 1,705 विद्यालय मौजूद
जनमें विद्यार्थी पढ़ते थे । द ५ ॥
बबई के दी ले जांचों की विश्वसनीयता : ये. प्रतिवेदन कहां तक वश्वसनीय हैं हे
गुणात्मक दृष्टि से, यह माना जा सकता है कि इनमें के काल की देशी शिक्ष ण संस्था
का काफी यथार्थ चित्रण किया गया है।प रंतु इस बात में संदेह है कि उनमें परिमाणात्मक
पक्ष का भी समान रूप से यथार्थवादी चित्रण किया गया है। यह पहले का कहा जा चुका
है कि इन प्रतिवेदनों में उस गृह शिक्षा पद्धति की ओर अधिक ध्यान नई दिया गया हैजो
बंबई में अवश्यभेव विद्यमान थी । यहां तक कि औपचारिक विद्यालयों के संबंध में भी इस
बात की कोई संभावना नहीं है कि इन प्रतिवेदनों में सभी विद्यमान संस्थाओं के आंकड़ों
को शामिल किया गया था। इनमें से बहुत से प्रतिवेदन बहुत जल्दबाजी में तैयार किए
गए थे।' उदाहरण के लिए, भड़ौंच, करा और : सूरत के जिलाधीशों रे जांच के.
लिए सरकारी पत्र भेजे जाने के लगभग चार महीने कै कर अपने प्रतिवेदन ँ
- कर दिए थे। यद्यपि अन्य जिलाधीश इतनी जएदी कार्य न कर सके पा ह जि
जितना समय लिया वह विशेषकर उस काल में विद्यमान पत्र प्रेषण के घीभी गति वाले
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