एक तिनके से आई क्रांति | ONE STRAW REVOLUTION

ONE STRAW REVOLUTION by पुस्तक समूह - Pustak Samuhमासानोबू फुकूओका -MASANOBU FUKUOKAहेमचन्द्र पहारे - HEMCHANDRA PAHARE

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मासानोबू फुकूओका -Masanobu Fukuoka

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हेमचन्द्र पहारे - HEMCHANDRA PAHARE

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बीतते दिनों के साथ मेरी सुखानभूति भी मध्यम होने लगी, और जो कुछ अभी हाल में घटा था उस मैंने विचार करना शुरू किया। आप कह सकते हैं कि मैं फिर से होश में आने लगा। वहां से मैं टोकियो जाकर कुछ दिन रहा। मैं रोज पार्क में घूमते-फिरते लोगों को रोककर उनसे बतियाते हुए अपना समय गुजारता और कहीं भी सो जाता। मेरा दोस्त मेरे बारे में चिंतित था। मेरा हाल देखने वह वहां आया। “क्या तुम किसी स्वप्नदेश में, एक अवास्तविक दुनिया में नहीं जी रहे हो।' हम दोनों एक ही बात सोच रहे थे।' मैं सही हूं और तुम सपनों की दुनिया में जी रहे हो।' जब मेरा दोस्त मुझसे विदाई लेने आया तो मैंने उसके कुछ यूं कहा : 'गुडबॉय मत कहो। विदा होना बस विदा होना हेै।' लगता हे इसके बाद मेरे दोस्त ने मेरे बारे में उम्मीद छोड़ दी। मैंने टोक्यो भी छोड़ दिया और कान्साई क्षेत्र (ओसाका, कोबे, क्योतो) से गुजरता हुआ ठेठ दक्षिण में क्यूशू तक आ गया। हवा में तिनके की तरह भटकना मुझे अच्छा लग रहा था। इस दौरान कई लोगों को मैंने अपना यह विचार बतलाया कि हर चीज निरर्थक और मूल्यहीन है। घूम-फिर कर हर चीज बेमानी हो जाती हे। लेकिन सामान्य लोगों के लिए इस विचार को ग्रहण करना या तो बहुत बड़ी बात थी या बहुत छोटी। लोगों के साथ किसी भी तरह का संवाद स्थापित नहीं हो पाया। मैं सिर्फ यही सोचकर तसल्ली पर रहा था कि उपयोगहीनता ही इस असाधारण दुनिया के लिए बड़े काम की चीज है। खास तौर पर उस दुनिया के लिए जो बड़ी तेजी से इसके विपरीत दिशा में भाग रही थी। मैंने एक बार इस विचार को सारे देश में फैलाने के बारे में भी गंभीरता से सोचा। नतीजा यह हुआ कि मैं जहां-जहां भी गया, लोगों ने सनकी समझकर मेरी उपेक्षा की। अंततः मैं गांव में अपने पिता के खेतों को लौट गया। उन दिनों मेरे पिता संतरों की खेती कर रहे थे, और मैं पहाड़ी पर एक कुटिया बनाकर आदिम तरीके की सादी जिंदगी जीने लगा। मैंने सोचा कि यहां एक किसान के रूप में नारंगियों और अनाज उगाते हुए यदि मैं अपने अनुभव को वास्तविक रूप से प्रदर्शित कर दूं तो दुनिया को उसकी सच्चाई का पता चल जाएगा। अपने दर्शन के बारे में लोगों को हजार कैफियतें देने से क्या यह बेहतर नहीं होगा कि मैं उसे खुद अपने आचरण में उतार लूं। खेती की 'कुछ-न-करो' की विधि की शुरुआत इसी विचार के साथ हुई। यह काम 1938 यानी तात्कालीन सम्राट के राज्यकाल के तेरहवें बरस में शुरू हुआ। मैं पहाड़ पर बस गया और तब तक सब कुछ ठीक-ठाक चला। जब मेरे पिता ने बाग के खूब फल देनेवाले पेड़ मुझे सौंप उस समय तक वे इन पेड़ों को काट-छांटकर 'साके' मदिरा के प्यालों का आकार दे चुके थे, ताकि ऊपर लगे फलों को आसानी से तोड़ा जा सके। जब मैंने उनको इसी हालत में छोड़ दिया तो, हुआ यह कि उनकी शाखाएं आपस में मिल गयीं। कीड़ों ने पेड़ों पर हमला बोल दिया और पूरा बाग कुछ ही दिनों में मुरझझा गया। मेरा विश्वास यह था कि फसलें अपने आप पनपती हैं और उन्हें उगाने की जरूरत नहीं होती। मैं यह मानकर चल रहा था कि हर चीज को अपना स्वाभाविक रास्ता अपनाने के लिए छोड दिया जाना चाहिए। लेकिन बाद में मुझे पता चला कि यदि आप इस तरह के विचार को एकदम लागू कर दें, तो कुछ दिनों बाद आपके नतीजे बहुत अच्छे नहीं होते। यह तो परित्याग होगा, प्राकृतिक कृषि नहीं।




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