शिक्षा में बदलाव का सवाल | SHIKSHA MEIN BADLAV KA SAWAL
श्रेणी : बाल पुस्तकें / Children
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
154
श्रेणी :
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अनिल सदगोपाल - ANIL SADGOPAL
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)30 ७ शिक्षा में बदलाव का सवाल
: हैं? शायद, नसें इसलिए लाल हो गईं चूंकि हमने टहनी को उसके तने से काट दिया था।
मैंने सेब को काटकर रखने के बाद उसे भूरा होते देखा है ।
यद्यपि हममें से कुछ को यह सवाल फिजूल सा लगा लेकिन उसकी उपेक्षा नहीं की
जा सकी। क्योंकि ऐसे ही सवाल “ख़ोजी पद्धति' की मेरुदंड बनते हैं जिनके जरिए अगले
प्रयोग नियोजित करने की कड़ियां मिलती हैं। एक गरमागरम बहस शुरू हो गई। तय हुआ
कि इस प्रयोग को संशोधित करके उसमें सादे पानी में दूसरी कटी हुई टहनी रखी जाए।
यहां से कार्यक्रम में 'तुलना के लिए प्रावधान' (कंट्रोल) शामिल करने की अवधारणा की
शुरुआत हुई।
. अब तक शिक्षक खोजबीन करने की भावना से ओतप्रोत हो चुके थे। “यदि हम लाल स्याही
की जगह नीली स्याही का उपयोग करें तो क्या होगा? एक शिक्षक ने पूछा | सबके चेहरे
स्रोत दल के एकमात्र जीवविज्ञानी की ओर मुड़ गए। उन्होंने झटके में कह दिया, मुझे
नहीं मालूम' । यह सुनकर शिक्षक हक््के-बक्के रह गए। जीवविज्ञानी का यह उत्तर शिक्षकों
के पूरे मूल्य तंत्र के लिए एक धक्का था । उन्होंने बड़े अविश्वास के साथ पूछा, 'बदि आपको
इतनी सरल चीजें भी नहीं आती तो पी-एच.डी. की उपाधि कैसे मिल गई?” उनकी धारणा
के अनुसार पी-एच.डी. की उपाधि ज्ञान का अंतिम बिंदु थी। स्रोत दल के लिए वैज्ञानिक
जांच-पड़ताल में निहित खुलेपन की मिसाल पेश करने का यह मौका था। इस प्रयोग को
अलग-अलग प्रकार की स्याहियों के साथ दोहराया गया । इसके जरिए पौधों के द्वारा विभिन्न
रसायनों का 'पृथक्कृत अवशोषण' स्पष्ट रूप से प्रदर्शित हुआ | खखोजी पद्धति का संपूर्ण
निहितार्थ तब कहीं जाकर शिक्षकों के मानस में उतर पाया। वे समझने लगे कि उन्हें भी
अकसर ऐसे मुश्किल मौकों पर यह स्वीकारने के लिए बाध्य होना पड़ेगा कि मुझे इसका
जवाब नहीं आता | आओ, हम मिलकर पता करें ।' यह सब कक्षा में शिक्षक के पारंपरिक
प्रभुत्व को चुनौती देने जैसा था। यह एक लंबी लड़ाई रही है और मुझे नहीं मालूम” का
दर्शन धीरे-धीरे शिक्षकों के मानस का हिस्सा बना है।
सरल से सरल काम भी हमारे लिए अनपेक्षित प्रसंगों के स्लोत बन जाते थे। उदाहरण के
लिए लंबाई नापने का मामला ही लीजिए। शिक्षकों को कहा गया कि वे एक मेज की लंबाई
नापें। वे कहने लगे, 'अरे ! यह तो बच्चों का खेल है, हमसे कोई गंभीर काम क्यों नहीं
कराते?” लेकिन हम अपनी बात पर अड़े रहे। बड़े बेमन से हाथ में मीटर स्केल पकड़े
हुए वे मेज तक गए। नापना शुरू किया तो जल्द ही उनका आत्मविश्वास बिखरने लगा ।
उनमें से कुछ को पैमाने को पढ़ने में दिक्कत आई, कुछ को दशमलव के साथ, तो कुछ
को सेंटीमीटर और इंच में भेद करने को लेकर। बहुत लज्जित होकर उन्होंने मापन क्रिया
में प्रशिक्षण लेना स्वीकारा | हमने हरेक को श्यामपट्ट की लंबाई नापने को कहा, 200.8
सें.मी., 198.7 सें.मी., 200.5 सें.मी., 199.2 सें.मी., 201 .2 सें.मी. ....लंबी सूची चलती रही ।
उन्होंने पूछा, 'लंबाई इस तरह घटती-बढ़ती क्यों हैं?” नापने में उनसे शायद कोई गलती
होशंगाबाद विज्ञान ७ 31
हो गई हो, इसलिए फिर से नापना शुरू किया-इस बार अधिक सावधानीपूर्वक । लेकिन
फिर भी उनके मापन घटते-बढ़ते रहे, यह देखकर वे परेशान हो गए। उनकी दृष्टि में विज्ञान
की सत्यता का अर्थ उसकी विशुद्धता में था। दुकानदारों द्वारा तौलने और नापने में भी
इस प्रकार का घटना-बढ़ना होता है लेकिन शिक्षकों ने इसे उनके द्वारा की गई बेईमानी
मान लिया था। अंतरिक्ष किरणों (कास्मिक रे) के साथ काम करने वाले एक भौतिकशास्त्री
(प्रो. यशपाल) ने अपने उन प्रयोगों का जिक्र किया जिनमें अंतरिक्ष किरणों के मापन में
भी इसी प्रकार का घटना-बढ़ना होता है--चाहे इसके लिए “आयातित' (विदेशी) उपकरणों
का ही उपयोग क्यों न किया जाए। उस दिन शिक्षकों की शब्दावली में घटने-बढ़ने के लिए
एक नया शब्द-घटबढ़-जुड़ गया।
चोर, लकड़ी की पेटियां तथा विद्यार्थी कोष
अब तो यह रोजमर्रा की बात हो गई थी | शिक्षक एक बार फिर विज्ञान किट की दुर्दशा
के बारे में शिकायत कर रहे थे | किट सामग्री बिखरी पड़ी थी -चूहों, चोरों, हवा, बारिश
एवं धूल आदि सभी के आक्रमण के लिए। अधिकारियों ने शिक्षकों को सूचित कर
दिया था कि “किट को रखने के लिए कोई अतिरिक्त अलमारियां नहीं दी जा सकतीं ।
हमने विकल्प के रूप में लकड़ी की पेटियां इस्तेमाल करने का सुझाव दिया। शिक्षकों
को इस सुझाव पर गहरे शक थे। वे इस बात पर अड़े रहे कि इतनी सारी सामग्री लकड़ी
की पेटी में समा ही नहीं सकती । हमने उन्हें पेटी के अंदर खाने बनाकर, खूँटियां लगाकर
आले बनाकर और कब्जों तथा सिटकनियों की मदद से पेटी का ढक्कन लगाकर दिखाया।
बच्चों के द्वारा ऐसी अलमारियां 15 रुपए पति स्कूल की कीमत पर बनाई जा सकती
थीं। मासिक गोष्ठी में शिक्षकों ने पूछा, 'इसके (अलमारी के) लिए पैसा कहां से आएगा ?'
जिला शिक्षा अधिकारी ने उन्हें विधार्थी कोष की याद दिलाई। यह कोष बच्चों के द्वारा
हर साल छोटी-छोटी निश्चित मात्रा में दिए गए चंदे को जोड़कर इकट्ठा किया जाता
है और इसका उपयोग इसी प्रकार के विविध कामों के लिए किया जाता है। लेकिन
इसके बावजूद कुछ भी नहीं हुआ।
अगले ज्ैक्षिक सत्र की शुरुआत में हमने फिर से लकड़ी की पेटियों का मुद्दा उठाया।
अब हमारे पास कुछ नई जानकारियां थीं। एक सहायक जिला शाला निरीक्षक (यानी
इंस्पेक्टर) ने हमें काफी उत्साह के साथ बताया कि वे स्कूलों को चाहे जितनी पेटियां
दे सकते हैं। स्कूलों के लिए चाक की आपूर्ति उनके दफ्तर में ऐसी ही पेटियों में होती
है। इन पेटियों को खाली करके साधारणतः “भेंट स्वरूप” बांट दिया जाता है। उन्होंने
हमें आश्वासन दिया कि उस वर्ष इन पेटियों को स्कूलों में किट अलमारियां बनाने के
लिए आरक्षित कर दिया जाएगा।
एक साल और बीत गया। स्कूलों में एक भी पेटी नहीं पहुंची। कई स्कूलों में अभी
भी किट सामग्री इधर-उधर पड़ी रहती है-चूहों, चोरों....आदि के आक्रमण के लिए
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