स्कूल में आज तुमने भला क्या पूछा ? | SCHOOL ME BHALA TUMNE AAJ KYA POOCHA

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कमला वी० मुकुंदा - KAMALA V. MUKUNDA

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पुस्तक समूह - Pustak Samuh

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पूर्वा याज्ञिक कुशवाहा - PURWA YAGYIK KUSHWAHA

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जाता है। उदाहरण के लिए, अवसाद तथा चिंता पर योग के प्रभाव पर कुछ अध्ययन हुए हैं; या फिर हिन्दू सांख्य दर्शन पर आधारित त्रिआयामी व्यक्तित्व सिद्धान्त पर अध्ययन किए गए हैं। परन्तु यह अभिगम अधिक लोकप्रिय नहीं हैं क्योंकि भारतीयों में बेहद सांस्कृतिक विविधता है। दूसरा रास्ता जो अधिक लोकप्रिय है, वह भारतीय वास्तविकताओं - जैसे गरीबी, भीड़भाड़ तथा लिंग अंतरों को -- मनोवैज्ञानिक अध्ययन का विषय बनाना है। तीसरा रास्ता है पाश्चात्य सिद्धान्तों तथा अवधारणाओं को भारतीय संदर्भों में जाँचने का। कई सालों तक इसका अर्थ पाश्यात्य निष्कर्षों की नकल से अधिक नहीं रहा है। परन्तु हाल ही में इस प्रकार के अधिक कल्पनाशील तथा मौलिक अध्ययन भी हुए हैं। इन प्रयासों की संख्या का कुछ अनुमान आपको हो सके, इसलिए बता दें कि वोहरा ने पाया कि भारतीय पत्रिकाओं में 1998 से 2002 के बीच छपे कुल 1,895 प्रयोगाश्रित प्रकाशित मनोवैज्ञानिक आलेखों में 26 प्रतिशत आलेख ऐसे थे जिन्हें किसी न किसी रूप में देशज कहा जा सकता था। इनमें से 12 आलेखों में पहला रास्ता अख्तियार किया गया था, 394 दूसरे रास्ते के थे और 85 में तीसरा रास्ता अपनाया गया था। अगर हमारा लक्ष्य भारत में पूर्णतः स्वायत्त वैज्ञानिक मनोविज्ञान है, तो हम उस दिशा में काफी धीमी गति से बढ़ रहे हैं। इस प्रक्रिया को बढ़ाने में सहायक बनने के लिए हमें कुछ अच्छी पत्रिकाओं, क्षेत्रीय तथा राष्ट्रीय मनोवैज्ञानिक संघों तथा वोहरा के शब्दों में '...परिपक्व शोधकर्ताओं के क्रांतिक द्रव्यमान (क्रिटिकल मास) की” आवश्यकता है, जो राष्ट्रीय रुचि के विषयों तथा भारतीय संदर्भ में प्रासंगिक समस्याओं की पहचान कर सकें ।' इस बीच पाश्चात्य मनोविज्ञान का क्षेत्र हमें अनेकों अंतर्दृष्टियाँ उपलब्ध करवाता है। बेशक इनमें सांस्कृतिक अंतर मौजूद हैं। हमारे विशिष्ट विश्वास तथा अभ्यास पाश्चात्य लोगों से बहुत भिन्‍न हैं। फिर भी चिंतन (थॉट) तथा सीखने (बोध) की तंत्र समान ही होते हैं। मनोवैज्ञानिक शोध के कुछ निष्कर्षों पर सांस्कृतिक प्रभाव अधिक होता है, तो कुछ पर कम ।* इन निष्कर्षों से अधिक महत्त्वपूर्ण हैं उनके निहितार्थ जो भारत में शिक्षकों के रूप में हमारे लिए वे प्रस्तुत करते हैं। मैंने पाया कि मैं अमूमन इन निहितार्थों से आसानी से बहुत कुछ निकाल सकती थी। 1. निहारिका वोहरा (2004) “द इन्डिजनाइज़ेशन आँव साइकॉलजी इन इण्डिया : इटस्‌ यूनिक फॉर्म एण्ड प्रोग्रेस', जो बी. एन. सेतियादी, ए. सुप्रतीकन्या, डब्ल्यू, जे. लोनेर तथा वाय. एच. पूर्तिलिंगा (संपादित) ऑनगोइंग थीम्स इन साइकॉलजी एण्ड कल्चर (ऑनलाइन एडिशन), मेलबर्न, एफएलः इन्टरनेशनल एसोसिएशन फॉर क्रॉस कल्चरल साइकॉलजी। जो ॥19:/एछ/-३०००.ण४ट से लिया गया है। 2. इस विषय पर 2005 में छपे आरा नॉरेंजयान तथा स्टीवन जे. हाइन के आलेख 'साइकोलॉजिकल यूनिवर्सल्स : व्हॉट आर दे एण्ड हाऊ कैन वी नो? साइकोलॉजिकल बुलेटिन, खण्ड-181, संख्या-5: 763-784, में इस पर बढ़िया चर्चा मिलेगी। “सीखना” मनोवैज्ञानिक विश्लेषण ३३७७७७७००««««««००««««««५««««««««०«००«००७५७७५००«७७०००७००००००७००००००००००००++००++++++++ 1 5




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