पूस की रात | POOS KI RAAT

POOS KI RAAT by अरविन्द गुप्ता - Arvind Guptaप्रेमचंद - Premchand

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प्रेमचंद - Premchand

प्रेमचंद का जन्म ३१ जुलाई १८८० को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। प्रेमचंद की आरंभिक शिक्षा फ़ारसी में हुई। सात वर्ष की अवस्था में उनकी माता तथा चौदह वर्ष की अवस्था में उनके पिता का देहान्त हो गया जिसके कारण उनका प्रारंभिक जीवन संघर्षमय रहा। उनकी बचपन से ही पढ़ने में बहुत रुचि थी। १३ साल की उम्र में ही उन्‍होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्‍यासों से परिचय प्राप्‍त कर लिया। उनक

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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एः घंटा और गुजर गया। रात ने शीत को हवा से धधकाना शुरु किया। हल्कू उठ बैठा और दोनों घुटनों को छाती से मिलाकर सिर को उसमें छिपा लिया, फिर भी ठंड कम न हुई, ऐसा जान पड़ता था, सारा रक्त जम गया हैं, धमनियों मे रक्त की जगद्ट हिम बह रहीं है। उसने झुककर आकाश की ओर देखा, अभी कितनी रात बाकी है ! सम्रषिं अभी आकाश में आधे भी नहद्वीं चढ़े | ऊपर आ जाएँगे तब कहीं सबेरा द्वोगा | अभी पहर से ऊपर रात हैं । टृल्कू के खेत से कोई एक गोली के टप्पे पर आमों का एक बाग था । पतझड़ शुरु हो गई थी । बाग में पत्तचियो को ठेर लगा हुआ था । हल्कू ने सोच, चलकर पत्तियों बटोरू और उन्हें जलाकर खूब तापूं | रात को कोई मुझे पत्नियों बटारते देख तो समझे, कोई भूत है | कौन जाने, कोई जानवर ही छिपा बैठा दो, मगर अब तो बैठे नहीं रह जाता । उसने पास के अरहृर के खेत मे जाकर कई पोधें उखाड़ लिए और उनका एक झाड़ू बनाकर द्वाथ में सुलगता ठ्ुआ उपला लिये बगीचे की तरफ चला | जबरा ने उसे आते देखा, पास आया और दुम द्विलाने लगा । टृल्कू ने कह्ाा अब तो नहीं रहा जाता जबरू | चलो बगीचे में पत्तियों बटोरकर तापें | टॉटे हो जाएँगे, तो फिर आकर सोएऐंगें | अभी तो बद्दुत रात है। जबरा ने कूँ कूँ करें सहमति प्रकट की और आगे बगीचे की ओर चला। बगीचे में खूब अंधेरा छाया दुआ था और अंधकार में निर्दंय पवन पत्तियों को कुचलता हुआ चला जाता था । वृक्षों से ओस की बूँदे टप टप नीचे टपक रही थीं । एकाएक एक झोंका मेट्टदी के फूलों की खूशबू लिए हुए आया । हृल्कू ने कहा कैसी अच्छी महक आई जबरू ! तुम्हारी नाक में भी तो सुगंध आ रही हैं ? जबरा को कहीं जमीन पर एक हृडडी पड़ी मिल गई थी । उसे चिंचोड़ रहा था। टृल्कू ने आग जमीन पर रख दी और पत्तियों बठारले लगा | जरा देर में पत्तियों का ठेर लग गया था । द्वाथ ठिठ़रे जाते थें | नगें पांव गले जाते थे | और




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