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NEGAL NATIONAL BOOK TRUST by अरविन्द गुप्ता - Arvind Guptaविलास मनोहर -VILAS MANOHAR

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विलास मनोहर -VILAS MANOHAR

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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18 नेगल चौथे दिन सुबह वहां बड़ी धूम मच गयी। सभी लोग पिंजरे के आसपास खड़े थे। नाग . मरा पड़ा था, और चूहा फन का मांस खा रहा था। फन का बड़ा हिस्सा तो वह खा भी चुका था। हमें अपनी ही आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था। गलती हमारी ही थी। नाग की केंचुली निकलने को थी। इस कारण उसे कुछ दिखाई ही नहीं देता था। उन दिनों वह कुछ खाता भी नहीं है। चूहा चार दिन से वहां भूखा था। उसे खाने के लिये हमने कुछ दिया भी नहीं था। चूहा शाकाहारी नहीं होता, वह सर्वभक्षी होता है। उसके बाद हमने वैसी गलती कभी नहीं की । हमने खूब सारे नाग, क्रेट, वाइपर पाल रखे थे। उन्हें खाने के लिये हमने चूहे दिये, लेकिन साथ ही चूहों के खाने के लिए रोटी भी रखी। 28 मार्च 1976 को ताड़गांव से संदेश मिला कि भालू के दो बच्चे वहां मिले हैं, आकर ले जाइए। संयोग से उस समय मकान का काम चल रहा था, हमारे पास ट्रैक्टर भी था। .. वैसे सन्‌ 1981 तेक वर्षाकाल में नदियों के पूरे बहाव में आने पर प्रकल्प के परिसर में _ द हम कोई वाहन रख नहीं पाते थे क्योंकि वहां पक्की सड़क नहीं थी। ट्रैक्टर लेकर दोपहर ः में ही हम ताड़गांव पहुंच गये। भालू के दो बच्चे एक टोकरी के बंद थे। एक दिन पूर्व : सारा गांव जब शिकार खेलने गया था तो वे वहां मिले थे। गांव वाले बता रहे थे कि उनकी मां भाग गयी थी। लेकिन उसे निश्चित रूप से गांव वाले मारकर खा गये होंगे। चूंकि मां मार दी गयी इसलिए उसके वापस आने का प्रश्न ही नहीं उठता था। लेकिन छुट्टी पर गये हुए फारेस्ट गार्ड के वापस लौटने का गांव वालों को अधिक डर था। सन्‌ 1982-83 से शिकार करना कम हुआ है, लेकिन उससे पूर्व शिकार बेरोकटोक चल रहा था। फारेस्ट गार्ड शिकार खेलने पर किसी पर मुंकदमा वगैरा नहीं करता था। शिकार का बड़ा हिस्सा उसके पास पहुंचना जरूरी था। अब शिकार में कमी आई है क्योंकि जंगल में जानवर संख्या में ही कम हो गये हैं। व्यक्ति भले ही किसी भी धर्म का हो मुफ्त मिलनेवाली भेंट स्वीकार _ करने में कोई भी धर्म आड़े नहीं आता। हिंदू गार्ड नीलगाय का मांस नहीं खाता, अतः नीलगाय का शिकार करने पर उसे गांव की ओर से एक मुर्गी भेंट में देनी होती । मुसलमान गार्ड केवल हलाल का ही मांस खाते हैं, इसलिए प्रत्येक शिकार के बदले में उसे एक मुर्गी भैंट देने की प्रथा है। भालू के दोनों बच्चे लेकर शाम को हम लौट आये। उन्हें देखने के लिये बड़ी संख्या में लोग जमा हो गये थे। हर कोई सुझाव दे रहा था और जानकारी भी दे रहा था। भालू सीधा सामने से न देखकर अपने पिछले पांवों के बीच गर्दव डालकर पीछे देखता है। वह _ मनुष्य को गुदगुदाकर, हंसा-हंसाकर लोट-पोट कर देता है। सिर नीचे झुकाकर वह पेड़ पर चढ़ता है। लेकिन हमारे लिए बच्चों को पिटारे से बाहर निकालकर उन्हें पहले दूध पिलाना जरूरी था। दो दिनों से वे भूखे ही थे। अपने ही पंजे मुंह में लेकर चूसते हुए चूं-चूं कर रहे थे। टोकरी को जरा भी धक्का लगते हो वे गुस्सा हो जाते थे। सभी के सुझाव नेगल द द 19 चार हाथ दूर से ही आ रहे थे। मैंने रस्सी खोलकर टोकरी का ढक्कन हटा दिया। उसे _तिरछा करने पर दो काले रंग के गोल-मटोल बच्चे आवाज करते हुए इधर-उधर भागने लगे। इतनी देर तक तमाशा देख रहे सभी लोग अब उन्हें देखते ही भागने लगे थे। दो लोग तो पास ही के पेड़ पर तत्परता से चढ़कर उन्हें किस तरह पिटारे में फिर से बंद किया जाये, इस बारे में सुझाव दे रहे थे। बच्चे जरा गुस्से में दिख रहे थे। वे जोर से चीख रहे _ थे। हमें फिर ख्याल आया कि उन्हें किसी के सहारे की आवश्यकता है। उनकी मां तो वहां पास थी नहीं। फिर हिम्मत कर एक को गर्दन से पकड़कर प्रकाश ने उठा लिया तथा दूसरे को मैंने पकड़ा और दोनों हाथों से छोटे बच्चे की तरह उसे बगल में थाम लिया। हमने उनकी आंखों को एक हाथ से ढंक दिया। तंब कहीं बच्चों का चिल्लाना बंद हुआ। हम पालथी मार कर बैठ गये । हमारी गोद में बच्चे चुपचाप पड़े रहे। गर्दन की पकड़ हमने जरा ढीली कर दी और अपना हाथ निकाल लिया। आंखों पर से हाथ हटते ही उजाला देखकर मेरी गोद वाला बच्चा फौरन चिड़चिड़ाया और उसने मेरी जांघ में काट लिया। मुझे भयंकर पीड़ा हुई। फिर मैंने एक हाथ से उसकी आंखें ढंक दीं और दूसरे हाथ से गर्दन के नीचे धीरे-धीरे उसे सहलाने लगा। बच्चा धीरे-धीरे शांत हुआ। अपना अगला पैर मुंह में लेकर गुड़-गुड़ आवाज करते हुए वह पड़ा रहा। अब मैं भी कुछ शांत हुआ। मेरे माथे पर पसीना था, लेकिन उसे पोंछने के लिये मेरा कोई हाथ खाली नहीं था और अब अपना हाथ हटाने की मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी। प्रकाश के पास दूसरा बच्चा था, अब मुझे उसकी याद आयी। उसका हाल जानने के लिये मैंने उधर देखा । प्रकाश ने तो अच्छी प्रगति की थी। बच्चे को चूसने के लिये उसने अपना हाथ उसके मुंह में दे रखा था और वह भी इस प्रकार से कि उसके हाथ से बच्चे की आंखें भी ढठंक गयी थीं। हम दोनों ने नजर से ही एक दूसरे को “सब ठीक है” का इशारा किया। 'राजू बंदर की कहानी” के समान सब कुंछ शांत हुआ देखकर, कई लोग तो वापस लौंट गये थे। उनकी आंखों में हमारे लिये प्रशंसा थी। भालू से भी अधिक हमारा बखान करना स्वाभाविक ही था। मेरी जांघ में काटे हुए स्थान पर बहुत दर्द हो रहा था। इस तारीफ की कीमत तो मैं पहले ही दे चुका था। प्रशंसा पाकर व्यक्ति को जो सुख होता है, उससे यातनाओं का दर्द मिट जाता है। तारीफ. करने वाले का भी कुछ जाता नहीं है। किसी का बखान होने पर जो लोग ईर्ष्या करते हैं उन्हें इस मार्ग को अपनाकर देखना चाहिए। लेकिन वे इसके लिए तैयार नहीं होते । उन्हें तो बस आलोचना ही करनी आती है। अब तो सभी सहायता करने लगे थे। थाली में दूध-चावल लाया गया | बहुत संभालकर बच्चों को थाली के सामने रखा गया। वे 'फुर्र फुर! आवाज करते हुए दूध-चावल गपकने लगे। भालू खाने के मामले में सब से लोभी और गंदा प्राणी होता है। दोनों ने ही मस्ती में अपने पांव थाली में रखे थे। आधे से अधिक खाना उन्होंने नीचे बिखेर दिया था। अब




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