मुक्तक लहरी | Muktak Lahri

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डॉ करुणा शंकर दुबे - Dr Karuna Shankar Dubey

नाम - डॉ0 करुणा शंकर दुबे
वर्तमान पद - सहायक निदेशक,आकाशवाणी,भारतीय प्रसारण सेवा (कार्यक्रम)एवं केन्द्राध्यक्ष आकाशवाणी ,अल्मोड़ा।
पिता का नाम - स्व0 पं0 कीर्ति शंकर दुबे
माता का नाम - स्व0 शशि प्रभा दुबे
पत्नी–श्रीमती गीता दुबे
जन्म
|
- 14 जून 1958
शिक्षा
- प्रारम्भिक शिक्षा -नगर पालिका प्राथमिक विद्यालय, पक्की
बाजार(अर्दली बाजार) वाराणसी ।
उच्च शिक्षा –काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी
- एम0 ए0 संस्कृत कला संकाय (काoहि0वि0वि0) - पी0 एच0 डी0, कला संकाय (काOहि0वि0वि0) - आचार्य पालि ,सम्पूर्णानन्दन संस्कृत विश्वविद्यालयऔर बौद्ध शब्द कोष का अध्ययन कार्य हेतु।
भूमण्डल(वाराणसी) - पाक्षिक हिन्दी के

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अभिमत जगद्गुरू भारत की भूमि का अपना एक विशेष महत्व है। अध्यात्म एवं ब्रहमाण्ड की विलक्षण भाषा-परम्पराओं से सराबोर साहित्यिक सांस्कृतिक जीवन को नये आयाम देना ही भारतीयता है, इसके वास्तविक स्वरूप को समझते ही प्राणी स्वयं को प्रकृति से जुड़ा अनुभव करने लगता है। यहाँ के रीति-रिवाज की श्रृंखला असीमित है, तथा प्रत्येक साहित्य की अपनी भाषा भी होती है और उसका अपना जन–जुड़ाव भी होता है। इसके पीछे कोई न कोई रहस्य अवश्य छिपा हुआ होता है। अपने धर्म, आस्था, पूजा और अर्चना को मूर्तरूप देने के लिए प्रतीक मन्त्र और गाथा है जो सम्पूर्ण भारतीयता को अतीतकाल से वर्तमान तक को समृद्ध बनाये हुए हैं। चाहे कर्मकाण्ड के बहाने से जोड़ते रहे हो या दुःख से मुक्ति पाने के लिए कविता मार्ग में समाधान के स्रोत के रूप में उपलब्ध होते रहे हैं। यह विवेचन प्रतीक रूप नहीं है मनुष्यता को जीवंत रखने का सहज माध्यम है किसी भी शुभ अवसर पर या किसी भी मंगल कार्य पर परिवार के लोग इन साहित्यों के मर्म का स्मरण अवश्य कर लेते हैं, मानो अपनी समृद्ध परम्परा को सजीव और साकार कर रहे हों। । यद्यपि समय के साथ साहित्य और साहित्य के विषय को अब उतने विस्तार जानने की प्रवृत्ति घटती जा रही है फिर भी हमें अपनी मूल संस्कृति से जुड़े रहना है। यही भारतीय होने का धर्म हैं क्योंकि इसके द्वारा हम अपने अस्तित्व को बनाये रख सकते हैं। साहित्य का अध्ययन न केवल ज्ञान वृद्धि के लिए संतुलित आहार है अपितु समृद्ध अतीत, वर्तमान और भविष्य को सार्थक करने का सर्वोत्तम साधन भी है। अतीतकाल में प्रकृति-देव आराधना के लिए भरपूर समय था उसके लिए सब कुछ मनुष्य कर लेता था। वर्तमान भागती-दौड़ती जिन्दगी में अधिक व्यस्तता और आधुनिकता ने समाज को बोझिल कर दिया हैं। सामाजिक सौहार्द रुट गया है हम अपना मूल स्वरुप खोते जा रहे हैं। हमारी प्रचलित रीतियां लुप्त होती जा रही हैं या नष्ट-प्राय हैं। हमें उनका व्यवहारिक रूप बनाये रखना है ऐसे समय में इस पुस्तक की रचना का उद्देश्य लोगों के बीच अपनी खोयी हुई ऐतिहासिकता को जगाने का और जानने का सहज कार्य करने में सक्षम होगा। शहरी जीवन में पले लोग अपनी संस्कृति को जान सकेंगे कि हमारा अतीत कहाँ है। और हम कहाँ हैं। इस पुस्तक के प्रकाशन का श्रेय परम आदरणीय मित्र रमेश चन्द्र शुक्ल जी को जाता है जिन्होंने मुझे कई बार इस पुस्तक के लेखन कार्य हेतु प्रेरित किया उनकी प्रेरणा का परिणाम है कि यह पुस्तक आपके सम्मुख प्रस्तुत करने में में सक्षम हो पा रहा हूँ, मैं हृदय से उनका आभारी हूँ। साथ ही मैं आभारी हूँ अपनी धर्मपत्नी की विदुषी डॉ0 गीता दुबे का




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