प्रेमचंद गुप्त धन | Premchand Gupt Dhan

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Premchand Gupt Dhan by अमृत राय - Amrit Rai

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ड गुप्त धन जैसा कि मैंने पहले ही बतला दिया था मैं तुझे फाँसी पर चढ़वा सकती हूं मगर मैं तेरो जाँबख्यी करती हाँ इसलिए कि तुझमें वह गूण मौजूद हैं जो मैं अपने प्रेमी में देखना चाहती हूँ और मुझे यकीन है कि तु जरूर कभी-न-कभी कामयाब होगा नाकाम और नामुराद दिलफ़िगार इस माझयूक़ाना इनायत से जरा दिलेर होकर बोला--एऐ दिल की रानी बड़ी मुद्दत के बाद तेरी ड्योढ़ी पर सजदा करना नसीब होता है। फिर खुदा जाने ऐसे दिन कब आएंगे क्या तू अपने जान देनेवाले आदिक़ के बुरे हाल पर तरस न खायेगी और क्या अपने रूप की एक झलक दिखाकर इस जलते हुए दिलफ़िगार को आनेवाली सख्तियों के झेलने की ताक़त न देगी ? तेरी एक मस्त निगाह के नशे से चूर होकर मैं वह कर सकता हूँ जो आज तक किसी से न बन पड़ा हो। दिलफ़रेब आशिक़ की यह चाव भरी बातें सुनकर गुस्सा हो गयी और हुक्म दिया कि इस दीवाने को खड़े-खड़े दरबार से निकाल दो। चोबदार ने फौरन गरीब दिलफ़िगार को धक्का देकर यार के कचे से बाहर निकाल दिया। कुछ देर तक तो दिलफ़िगार अपनी निष्ठुर प्रेमिका की इस कठोरता पर आँसू बहाता रहा और फिर सोचने लगा कि अब कहाँ जाऊँ । मुद्दतों रास्ते नापने और जंगलों में भटकने के बाद आँसू की यह बंद मिली थी अब ऐसी कौन-सी चीज़ है जिसकी क़ोमत इस आबदार मोती से ज्यादा हो। हज़रते ख़िज् तमने सिकन्दर को आबे हयात के कुएँ का रास्ता दिखाया था कया मेरी बाँह न पकड़ोगे ? सिकन्दर सारी दुनिया का मालिक था। मैं तो एक बेघरबार मुसाफ़िर हूँ । तुमने कितनी ही डूबती किड्तियाँ किनारे लगायी हैं मुझ ग़रीब का बेड़ा भी पार करो। ऐ आली- मुक़ाम जिबरील कुछ तुम्हीं इस नीमजान दुखी आशिक़ पर तरस खाओ। तुम खुदा के एक खास दरबारी हो क्या मेरी मुद्किल आसान न करोगे ? शरज़ यह कि दिलफ़िगार ने बहुत फ़रियाद मचायी मगर उसका हाथ पकड़ने के लिए कोई सामने न आया । आखिर निराश होकर वह पागलों की तरह दुबारा एक तरफ़ को चल खड़ा हुआ। दिलफ़िगार ने पुरब से पच्छिम तक और उत्तर से दक्खिन तक कितने हो जंगलों और वीरानों की खाक छानी कभी बर्फ़िस्तानी चोटियों पर सोया कभी डरावनी घ।टियों में भटकता फिरा मगर जिस चीज़ की धन थी वह न मिली यहाँ तक कि उसका दरीर हड्डियों का एक ढाँचा रह गया।




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