जैन प्रतिमा विज्ञान | Jain Pratima Vigyan
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm, धार्मिक / Religious
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
10.21 MB
कुल पष्ठ :
262
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भाघार ग्रन्थ भ धर पंडित रचित सरस्वती स्तुति जिनप्रभसूरि कृत शारदास्तवन साध्वी शिवार्या द्वारा रचिन पठितसिद्धसारस्वतस्तवन जिनदनसुरि कृत भ्रम्बिका स्तुति श्रौर महामात्य वास्तुपाल विरचित श्रम्बिकास्तवन श्रादि के नाम शिनाये जा सकते है । इन स्तुतियों मे उन उन देवियों के वाहन श्रायुध रूप श्रादि का वर्णन किया गया है । तात्रिक प्रभाव के कारण जेनो ने भी तरह तरह के यंत्र मंत्र तंत्र चक्र झादि की कल्पना को । सिद्धान्त रूप से तन्त्रोपेक्षी होने के बावजूद भी समय की माँग का श्रादर करने के लिये जन ग्राचा्यों को भी तात्रिक ग्रन्थों श्रौर कल्पो की रचना करनी पडी थी । यह स्थिति मुख्यत नौवी-दसवी शताब्दी के साथ शभ्रायी । उस प्रवाह मे हेलाचाय॑ इन्द्रनन्दि और मल्लिपण जस दिग्गजों ने तात्रिक दंवियों की साधना की श्रौर लौकिक कायसिद्धि प्राप्त की । हेला- चार्य ने ज्वालिनी कल्प की रचना की थी । उल्लेख मिलता है कि उन्हनि स्वय ज्वालिनी देवी के श्रादेश से वह रचना सम्पन्न की थी । हेलाचार्य द्रविड संघ के गणाधीग थे । दक्षिण देश के हम नामक ग्राम मे किसी ब्रह्मराक्षस ने उनकी कमलश्री नामक शिप्या को ग्रसित कर लिया था । उस ब्रह्मराक्षस से शिप्या की मुक्ति के लिये हलाचाय॑ ने ग्राम के निकटवर्ती नीलगिरि शिखर पर बह्धि देवी को सिद्ध किया श्रौर ज्वालिनी मंत्र उपलब्ध किया । परम्परागत रूप से वही मंत्र गुणनन्दि के शिष्य दन्द्रनन्दि को मिला किन्तु उन्होंन उस कठिन मंत्र को श्रार्या-गीता छंदों मे रचकर सरलीक्ृत किया । इन्द्रनन्दि के ज्वालिनी कल्प की प्रतिया उत्तर झौर दक्षिण भारत के द्यास्त्र-भण्डारा मे उप- लब्ध है । उनमें दिय गये विवरण से विदित हाता है कि ०० दलोक संख्या वाले दस कल्प की रचना कृप्णराज के राज्यकाल मे मान्यखेट कटक मे दयाक संवत् ८६१ की भ्रक्षय तुतोीया को सम्पूर्ण हुयी थी. । टन्द्रनात्दि द्वारा रचित पदूम।वती पूजा की प्रतियाँ भी उपलब्ध हुई है । उनके शिप्य वासवनन्दि की कृतियों का भी उल्लेख मिला है । मल्लिपेण श्रीषेण के पुत्र श्रौर श्राचायं जिनसेन के भ्रग्र थिप्य थे । उनके सुप्रसिद्ध मंत्रणास्त्रीय ग्रन्थ भेरवपदूमावतीकल्प का दिगम्बर श्रौर द्वेताम्बर दोनो सम्प्रदाया में प्रचार रहा है । उस ग्रन्थ में 3०० बलोक है । ग्यारहवी शताब्दी रस्वी के इस माँत्रिक विद्वान् की उपाधि उभयभषाकविदाखर थी । उनके द्वारा रचित विद्यानुवाद कामचाध्डालिनीकल्प यक्षिणीकल्प श्रौर ज्वा- लिनी कल्प की प्रतिया विभिन्न झास्त्र भण्टारों से सुरक्षित है । सागरचन्द्र सुर
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