अभिधर्म कोश भाग 3 | Abhidharma Kosh Vol.-3

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Abhidharma Kosh  Vol.-3 by आचार्य नरेन्द्र देव जी - Aacharya Narendra Dev Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जी द्वितीय कोशस्थान इत्द्रिय प्‌ वह स्पष्ट ही पृथर्जन है। अथवा यदि इस वचन में पं चेन्द्रियों का सामान्यतः उल्लेख है तो हम कहेंगे कि पृथग्जन दिविध हैं (विभाषा २ पृ ० ८ कालम २ और कालम १) बाहयक और आश्यन्त- रक । पहले ने कुशलमूल का समुच्छेद किया है (४.७९) दूसरे का कुशलमूल असमुच्छिन्न है। प्रथम को लक्ष करके भगवत्‌ कहते हें कि में उसको बाह्यक कहता हूँ वह पृथग्जन-पक्ष में अवस्थित हैं। पुन सूत्र के अनुसार धर्मंचक्र-प्रवतन (६.५४) के पूर्व भी लोक में तीक्षणेन्द्रिय मध्येन्द्रिय मुद्दित्द्रिय स॒त्व होते हैं। अतः श्रद्धादि इन्द्रिय अवद्यमेव एकान्त अनास्रव नहीं हैं। [१२०] अन्तत भगवत्‌ ने कहा हैं कि यदि मेँ श्रद्धादि पंचेत्द्रिय का प्रभव अन्तर्धान आस्वाद आदीनव निःसरण न जानता तो में सदेवक समारक सब्रह्मक लोक से और सश्रमण- ब्राह्मणिक प्रजा से मुक्त निःसृत विसंयुक्त विप्युक्त न होता और विपर्यास से अपगत चित्त से विहार न करता . . .। --किन्तु आस्वाद आदीनव निःसरण से विमुक्त अनास्रव धर्मों का यह परीक्षा-प्रकार नहीं हैं। अत श्रद्धादि पंचेन्द्रिय साख्रव-अनाख्रव दोनों हैं । विषाकों जीवित दधा हादशान्त्याष्टकादू ऋते । दौर्मनस्याच्च तत्त्वेक सविपाकं दा द्विधा ॥१०॥ सनोध्न्यवित्ति्वद्वादीन्यष्टक.. कुशल द्विधा। दौर्मनस्यं सनोधन्या च घितिस्त्रेघान्यदेकधा ॥0११॥। इन्द्रियों में कितने विपाक (२.५७ सी-डी) हैँ कितने विपाक नहीं हूँ? १० ए. जीचितेन्द्रिय सदा विपाक हि केवल जीवितेन्द्रिय (२.४५ ए-ब्री) सदा विपाक हैं। १. आक्षेप । जिस आयु संस्कार (नीचे पृ . १२२ देखिए) का अहतू भिक्षु अधिष्ठान करता हैं जिसकी स्थापना करता हूँ (स्थापयति अधितिष्ठति) वह स्पष्ट ही जीवितेन्द्रिय है। इस प्रकार अधिष्ठित अवस्थित जीचितेन्द्रिय किस कम का विपाक है? फलपारमिता प्रज्ञायते । फलपारसितां प्रतीत्य पुद्गलपारमिता प्रज्ञायते । यस्येमानि पंचेस्त्रि याणि सर्वेण सर्वाणि न सन्ति तमहम्‌ बाह्मम पृथग्जनपक्षावस्थित॑ बदासि । [व्या० १०३. १] विज्ञानकाय २३.९ फ़ोलिओ ६ ए-८ में वृद्धि के साथ यह सूत्र उद्धुत है। संयुत्त ५ २०० से तुलना कीजिए। र दो प्रकार के पूथरजन अन्ध और कल्याण पर सुमंगलबिलासिनी पृ. ५९ से तुलना कीजिए । 3 ब्रह्मावोचत्‌ । सन्ति भदन्त सत्वा लोके दृद्धास्तीक्ष्णेन्द्रिया अपि सध्येत्द्रिया अपि सृद्दिल्धिया अपि [वब्या० १०४. ४] ।--दीघ २. ३८ सज्किमस १. १६९ से तुलना कीजिए । क्था- बत्यु में दीघ २.२८ उद्धृत है ( ...... तिक्खिन्द्रियेसुदिस्दिये. . . . . क महावस्तु ३. ३१४ ललित ३१५ दिव्य ४९२ अत्थसालिनी ३५। संयुक्तागस २६ ४--संयुत्त ५. १९३ और आगे से तुलना कीजिए ।--विभाषा २ १० २ विभंग पृ. १२५ से तुलना कीजिए बविभाषा १४४ ९. 3 विपाकों जीवितमू--जीवन और मरण पर २. ४५ देखिए । व वहन सिश्तुरायुग्संस्कारान्‌ स्थापयति तज्जीवितेन्द्रियं कस्य विपाकः ।




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