शुक्ल जैन रामायण | Jain Ramayan

Jain Ramayan by पं. शुक्लचन्द्र - Pt. Shuklachandra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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छ सुमतिनाथ का जन्म हुआ । आप उनतालीस लाख पूर्व तक गृहस्थाश्रम में रहे फिर वैशाख शुक्ल & को अयोध्या के उपवन मे आपने ठीक्षा त्रत लिया । उसके ठीक बीस वर्ष पश्चात चेत्र शुक्ला ११ को आपने केवल ज्ञान प्राप्त किया । इस ' के पश्चात्‌ इन्होंने भी एक लाख पूव तक दीक्षात्रत का पालन कर और अपने शुक्ल ध्यान के बल से सम्पूर्ण कर्मो का चाय कर चैत्र शुक्ला ६ के दिन मुक्ति में पघारे । जब आप गर्स से थे, इनकी माता से बड़ा ही सुन्दर न्याय किया था । वह इस प्रकार था--एक मनुष्य के दो स्त्रियां और एक पुत्र था । इस बालक का पिता बचपन से ही मर चुका था । उपमाता माता से भी झअधिक स्नेह उस बालक पर करती थी । बालक साता और उपमाता को भी. सार कह कर ही पुकारता था । छुछ समय बाद उन दोनो स्त्रियों में विरोध हो गया । अन्त से दोनो के बीच भकगड़ा इतना बढ़ा कि उन दोन। से से प्रत्येक पुत्र को मेरा-मेरा कह कर वड़े ही जो से भकगड़ने लगी । अन्त में निश्वय आपस में कोई भी न होता देख उन में से हर एक न्यायाघीश के पास गई । राजा ने विद्वानों की सभा में बैठ कर दोना की लग अलग बाते सुनी । बालक से पूछा गया | बालक ने उत्तर मे दोनो को अपनी साताएं बताई यहां उपमाता पर और भी गहरा प्रेम प्रकट किया । शाजा और उसकी सभा के विद्वान्‌ बडे ही झाश्चये मे पड़ गये और झअतिम निणुय नद्दी दे सके । रानी ने भी यह विचित्र घटना राजा द्वारा सुनी । रानी ने इस उज्ञकन का सुनते ही सुलमका लिया ।




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