दिव्य-दर्शन अथवा योग शास्त्र की वैज्ञानिक विवेचना | Divya Darshan Athwa Yog Shastra Ki Vaigyanik Vivechna

Divya Darshan Athwa Yog Shastra Ki Vaigyanik Vivechna  by धर्मेन्द्रनाथ शास्त्री - Dharmandranath Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शव -दिव्यन्द्ड़ीन योगसिद्घान्त * सरल समन्वय । विफय-वियेचन मारी सच से चड़ी कठिनता यद है कि हमे घारम्भ में शमी चिघय परिन्य दो सफे;जघ सफ सकों के गद्दरे विषयों तक माय प्रवेश लीं होता, दम नहीं जान खकने कि योग फ्या है, इस लिये पुरुतक पे घारम्मिय् परिच्छेद में 'तर्क' या 'दुर्शन- शाखा की समस्थी सर कर वर्खन जिया सायया । परन्मु स्थूल- झुष्टि से चिप्रय-परिव्वय देने के लिवे इतना पर्याप्त दोगा किः-- मजुप्यघुद्धि हज़ारों चपों' तक 'ज्ञीचन' छोर विश्व थे थथार्थ घोर बन्तिम रक्स्य को समसकने पा यत्न कश्ती रही है। जो कु दर्म अपनी शानेद्रियों से पता लगता है घर जिसे घूम 'इस्ट्रियग्तेच्टप्ट जगत * ( उस ८तणापटाइण १४०१1 01 ीडन ऋण ० 5ला56), कद खकते हैं; इस से परे कोई नया सदस्य घस्तुतत्व, है. या नहीं १ है तो उसका स्वरूप कया है ? दसारी: इन्दियें, चहव तक पहुंच नहीं सफती शरीर दमारी:घुदि जब इन्द्र शोतचर पदार्थों से छाएगे चददना चाहसी है, चददां खे टक्कर खाकर सौर ब्याती, है-पंघिरे में रदोलती है व्ौर व्यथ में कर्पनाशक्ति चौडएनी है । सारी, बुद्धि की भी. उन ल़िपयों तक़ पहुंच नहीं




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