अर्वाचीन दर्शन का वैज्ञानिक इतिहास | Arwacheen Darshan Ka Vaigyanik Itihas

Arwacheen Darshan Ka Vaigyanik Itihas by डॉ. जगदीश सहाय श्रीवास्तव - Dr. Jagdish Sahaya Srivastav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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2 अर्वाचीन दर्शन का वैज्ञानिक इतिहास काण्ट की. वैज्ञानिक रचनाओं में उनकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण पुस्तक है सासान्य प्राकृतिक इतिहास एवं खगोल सिद्धान्त (0८ादादा पंडाएद सिजिणफु 96 प८ण४ 04. छा मिघ५८08 1755) जिसने आगे चलकर लाप्लाज की नीहारिका प्राककल्पना (ऐरट०एका सिफ्ुफणटिधंड) का रूप लिया । इस पुस्तक के द्वारा सौये-मण्डल की उत्पत्ति के इतिहास पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। जब हम जैसे संशयवादियों ने काण्ट को ज्ञान की प्राम।णिकता के विषय में चुनौती दी तो काण्ट ने एक पुस्तक लिखी जिसका नाम भूत द्रष्टा के स्वप्न (07680 5 0 8 01051 8६६1) रक्‍्खा । इस पुस्तक में उन्होंने यह दर्शानि का प्रयत्न किया कि ज्ञान में इन्द्रिया- नुभव की अपेक्षा बुद्धि और प्रतिभान का विशेष योगदान होता है । काण्ट की दार्शनिक रचनाओं में उनकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण पुस्तक शुद्ध बुद्धि की समीक्षा ((घां#पुष्ड 0 ऐपा6 रिध्घ5णा) है जो 1781 में स्वेप्रथम प्रकशित हुई । इसका द्वितीय परिवत्ित संस्करण 1789 में प्रकाशित हुआ । 1783 में उनकी प्रत्येक भावी तत्वघिज्ञान के लिए प्राककथन (£1016820एएथा8 (0 6४८7४ निपाएा फव680कड८४) प्रकाशित हुई जिसमें तत्व-विज्ञान के मौलिक सिद्धान्तों का विवेचन किया गया । इसके बाद 1788 में नीति-विज्ञान पर उनकी व्यावहारिक बुद्धि की समीक्षा ((एसघंपृष& 0. शि8०081 हिट8500) प्रकाशित हुई । इसके बाद 1790 में उनकी दर्शन की तीसरी महत्वपूर्ण पुस्तक सौन्द्य॑-बुद्धि की समीक्षा (07006 0 उप्र छाएब) प्रकाशित हुई । इन महत्वपूर्ण पुस्तकों के अतिरिक्त भी काण्ट ने दर्जनों पुस्तकें लिखी जिनमें सभी का उल्लेख करना आवश्यक नहीं है । उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं --केवल बुद्धि की परिधि के भीतर धर्म (#लांछं०्ण फाफिएं पिट वफाएडि 0 परिट8व50प 001 1793) प्राकृतिक विज्ञान के तात्विक अवयव (पफ6 ।नहविफुिएडएक] छिडशाब्वाड 0. पर४एा8] 3लंदाप्ट 1786). नीतिशास्त्र का तत्वविज्ञान (6५8 छ09808 0. छाफांट्ड 1797) । इन पुस्तकों के अतिरिक्त काण्ट ने सैकड़ों दाशंनिक लेख लिखे हैं जो दशंन के विविध पक्षों का सम्यक्‌ विवेचन प्रस्तुत करते हैं । दार्शनिक पृष्ठभमि--सर्वप्रथम काण्ट की शिक्षा बुल्फ (०1) के मताग्रही बुद्धिवाद में हुई थी । मताग्रही बुद्धिवाद (0088८. उरधप्रण्पव5णा ) के प्रति उनकी निष्ठा पर्याप्त समय तक बनी रही । बाद में उन्होंने अनुभव किया कि बुद्धिवाद हमें ज्ञान में निश्चयात्मकता तो दे सकता है पर सत्यता नहीं दे सकता । ज्ञान में सत्यता लाने के लिए अनुभववाद की शरण में जाना नितान्त आवश्यक है । इसके लिए वे ब्रिटिश दर्शन विशेषकर हम की ओर आकर्षित हुए । आगे चलकर अनुभववाद के भीतर भी उन्हें जूटियाँ दिखाई देने लगीं । उन्होंने अनुभव किया कि अनुभववाद की स्वाभाविक परिणति संशयवाद (3८८पंएांघ्णा) में ही हो सकती है । संशयवाद एक आत्मघातीं सिद्धान्त है जो कभी भी दर्शन का निष्कर्ष नहीं हो सकता । संशयवाद की ल्र.टियों को देखकर एक बार पुनः वे बुद्धिवाद की ओर आकर्षित हुए । लाइब्निव्स के नवीन लेखों (ऐस00४८3ण४ 5585) ने उन्हें विशेष प्रभावित किया । पर अन्त में उन्होंने यह भी भमनुभव किया कि विशुद्ध बुद्धिवाद ज्ञान को सत्यता प्रदान नहीं कर सकता । अतः काण्ट एक बार पुनः अनुभववाद की भोर भआकृष्ट हुए । मस्तत हा स ने उनकी मताग्रही निद्रा को सदा के लिए भंग कर दिया जिसके परिणामरदरूप उनकी




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