भारतीय नीति - शास्त्र का इतिहास | Bhartiya Neeti Shastra Ka Itihas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मीति शास्त्र को परिभाषा और क्षेत्र प्‌ वर्गन किया गया है। (७०, ७१) सबसे 'पहिले भगवान लकर ने इस नीति-शास्त्र को पढ़ा । विशालाक्ष भगवान्‌ शिव ने प्रजावर्ग की आयु वा द्वास होते देखकर ब्रह्मा जी के रचे हुए इस महान्‌ अर्थ से भरे हुए णास्त्र को सक्षिप्त किया । इसलिए इसका नाम विधालाक्ष्य' पड़ा। फिर इसका इन्द्र से अध्ययन किया । महा तपस्वी सुन्रह्मण्य भगवान्‌ पुरन्दर ने जब इसका अध्ययन किया तव उसमें १० हजार अध्याय थे। फिर उन्होंने भी इसका सक्षेप किया, जिससे यह पाँच हजार अध्यायों का ग्रन्थ हो गया। यही ग्रन्थ “वाहुदन्तक” नामक नीति थास्त्र के रुप में विस्यात हुआ (८१, ८२, ८३) । इसके वाद सपमर्थ्यणीरू वृहस्पति ने अपनी वुद्धि से इसका संक्षेप किया, तत्र इसमें ३ हजार अव्याय रह गए थे, यह प्रन्थ “वाहंस्पत्य” नामक नीति शास्त्र कहलाया। फिर महा-यणस्वी, योगणास्त्र के आचार्य तथा अमित बुद्धिमान शुक्राचार्य ने एक हज़ार अब्यायो में उस शास्त्र का सक्षेप किया (८४, ८५) । इस प्रकार मनुष्यों की आय का छ्लास होता हुआ जान कर जगत्‌ के हित के लिए महापियों से इस शास्थ को सश्षिप्त क्या 1 (८६) इस प्रकार सभी घास्त्रो का मूक स्रोत कोई न कोई देवता था क्रषपि या योगी माना गया है, साधारण मनुष्य नहीं। आयुर्वेद, पनुर्वेद और ज्योतिप्‌ जैसी विद्याओ का स्रोत भी यौगिक प्रत्यक्ष है। गहरे विचार से यदि देखा जाय तो विज्ञान का स्रोत भी इन्द्रियाँ और साधा- रण मन नही हैं। ये तो केवल आत्मा का विपय से सल्निकर्ष कराने के सापन मात्र हैं। विपयो के सम्बन्ध में जो अतीन्द्रिय और सवंब्यापी सामान्य जान होता है वह वैज्ञानिकों को उनकी सत्यन्त सयमित अवस्था में ही होता है। जितनी वैज्ञानिक खोजें हुई हैं व सब घारगा सौर ध्यान द्वारा समाधि अवस्था मे पहुँचने पर हुई हैं। साघारण पुरुप उच्च कोटि का वैज्ञानिक अन्वेपण नहीं कर सकता। विश्व का समस्त शान आत्मा के उच्च स्तर से ही माता हैं 'और ध्यानावस्था मे ही प्राप्त होता है। कवि की कविता और उच्च कोटि के लेख और विचार द्ृदय के अत्तस्तल में प्रवेश करने पर और <्यानावस्थित होने पर ही प्रकट होते हैं। इसलिए थास्त्र भौर विज्ञान में अधिक भेद नहीं है। जीवन भौर ससार का पूण भर सर्वीगी ज्ञान, जिसको प्रात करके सब प्रबन हल हो जाए और सब शकाए निवृत्त हो जाए, यद्यपि मनुष्य का ध्येय है, तयापि उमका प्राप्त होना मनुष्य जीवन में समव नहीं है। मनुष्य का हृदय वह प्रधान कुजी (085६८ा-६८४) प्राप्त करना चाहता है जिसके दारा जीवन भर ससार के सभी ताले आसानी से खुल सकें। उपनिपदो में शिष्य गुम से वही रहस्य जानना




User Reviews

  • Anurag

    at 2020-04-10 15:25:35
    Rated : 8 out of 10 stars.
    Dr. B. L. Atreya, the author of this book is my grandfather. He was a Professor and Head of dept of Philosophy, Psychology and Indian Culture at the Benares Hindu University. He was awarded Padma Bhushan.. This book is the first and foremost book on Ethics. If you need any more information please contact me. Anurag Atreya
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