1084 सिंहावलोकन भाग 2 (1952) | 1084 Sinhavalokan Vol-2 1952

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
1084  Sinhavalokan Vol-2 1952 by यशपाल - Yashpal

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about यशपाल - Yashpal

Add Infomation AboutYashpal

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
छिन्न सूत्रों की खोज ] श्७ पृछा । सुखदेव ने उत्तर दिया--“जो होना था, दो गया । संक्षेप में क्या बता सकता हूं । समय 'आने पर पता लग ही जायगा |” सैंने साथियों से अपना सम्बन्ध विच्छेद दो जाने की कठिनाई बताई और प्रभात (शिववर्मा); कालीचरण (कैलाशपति), ठाकुर भाई ( महावीरसिंद ) आदि से सम्बन्ध जोड़ने का सूत्र पूछा । मैं इन लोगों के वास्तविक नाम उस समय नहीं जानता था परन्तु लाहौर में दुल् के कार्यकर्ता के रूप में इन लोगों से परिचय हो चुका था । यह भी मालूस था कि रो लोग पंज्ञाबी नहीं, युक्तप्रान्त के हैं । भगवती चरण को खोज लेने का कोई सूत्र सुखदेव को मालूम न था । यू० पी० दल के शेष लोगों से सम्पक जोड़ने के लिए उस ने मुझे सहारनपुर में प्रमात का पता दे दिया । पंजाब में पुनः सम्पकं स्थापित करने के लिए परिडत जयचन्द्र जी विद्यालंकार और लाला रामशरणदास जी से सिलने की सलाह दी । बात-चीत के अन्त में मैंने सुखदेव को फिर ईंचे स्वर से तुरन्त झनशन छोड़ देने की सलाह दी और वकालतनामे पर उस के हस्ताक्षर कराकर शकुन्तला को साथ ले जेल से लौट छाया | फरारी की अवस्था सें यह दुस्साहसपूर्ण काम करने की बात जो भी सुनता मेरे साहस और चतुराइई को सराहना करने लगता परन्तु मैं जानता हूँ कि झाशंका से मेरा हृदय घुकघुक कर रद्दा था। जेल के फाटक के भीतर तो यही झाशंका थी कि “'चूहेदानी के भीतर चले जाना कठिन नहीं, निकल भी जाई तभी गनीमत है ।” दल से सम्पक जोड़ना अत्यन्त 'छावश्यक था और उसके लिंए सुखदेव से मिलने के सिवा कोई चारा सुमे सूमक नहीं रहा था । श्र ६ है न




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now