चन्द्रकान्ता सन्तति | Chandra Kanta Santati

Chandra Kanta Santati by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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49 इस चिट्टी को पढकर मैं बहुत देर तक रोता और अफसोस करता रहा। इसके वाद उठकर दारोगा के मकाम की तरफ रवाना हुआ । मगर आज भी अपने बचाव का पुरा-पुरा इन्तजाम करता गया । मुलाकात होने पर दारोगा ने कल से ज्यादा खातिर- दारी के साथ मुझे बैठाया और देर तक बातचीत करता रहा । मगर जब मैं सरयु के पास गया तो उसकी हालत कल से ज्यादा खराब देखने मे आई भर्थात्‌ भाज उसमें वोलने की भी ताकत न थी । मुख्तसिर यह है कि तीसरे दिन बेहोश और चौथे दिन आधी रात के समय मैंने सरयु को मुर्दा पाया । उस समय सेरी क्या हालत थी सो मैं वयान नहीं कर सकता । अस्तु उस समय जो कुछे करना उचित था और मैं कर सकता था उसे सवेरा होने के पहले ही करके छुट्टी किया अपने खयाल से सरयू के शरीर की दाह-क्रिया इत्यादि करके पचतत्व में मिला दिया और इस बात की इत्तिला इन्द्रदेव को दे दी। इसके वाद इन्दिरा के लिए अपने अड्डे पर गया और वहाँ उसे न पाकर बडा ताज्जुव हुआ। पृछते पर मेरे आदमियो ने जवाब दिया कि हम लोगो को कुछ भी खबर नहीं कि वह कब और कहाँ भाग गई । इस बात से मुझे सन्तोप व हुआ । मैंने अपने आद- मियो को सख्त सजा दी और वरावर इन्दिरा का पता लगाता रहा । अब सरयू के मिल जाने से मालूम हुआ कि उस दिंन मेरी कम्बख्त आँखों ने मेरे साथ दगा की और दारोगा के मकान में वीमार सरयू को मैं पहचान न सका । मेरी आँखों के सामने सरयू मर चुकी थी और मैंने खुद अपने हाथ से इन्द्रदेव को यह समाचार लिखा था इसलिए उन्हें किसी तरह का शक न हुआ और सरयू तथा इन्दिरा के गम मे ये दीवाने से हो गये हर तरह के चैन और आराम को इन्होंने इस्तीफा दे दिया और उदासीन हो एक प्रकार से साधू ही बन वैठे । मुझसे भी मुहब्बत कम कर दी और शहर का रहना छोड अपने तिलिस्म के अन्दर चले गये और उसी मे रहने लगे मगर न मालूम कया सोचकर इन्होंने मुझे वहाँ का रास्ता न बताया। मुझ पर भी इस मामले का वडा असर पडा क्योकि ये सच वातें मेरी ही नालायकी के सबब से हुई थी । अतएव मैंने उदासीन हो रणधघीरसिंहजी की नौकरी छोड दी और अपने घचाल-वच्चों तथा स्त्री को भी उन्ही के यहाँ छोड बिना किसी को कुछ कहे जंगल भौर पहाड़ का रास्ता लिया । उघर एक भौर स्त्री से मैंने शादी कर ली थी जिससे नानक पैदा हुआ है । उधर भी कई ऐसे मामले हो गये जिनसे मैं बहुत उदास भर परेशान हो रहा था उसका हाल नानक की जुबानी तेजसिंह को मालूम ही हो चुका है । वल्कि आप लोगो ने भी तो सुना ही होगा । अस्तु हर तरह से अपने को नालायंक समझकर मैं निकल भागा और फिर मुदुत तक अपना मुंह किसी को न दिखाया । इधर जब जमाने ने पलटा खाया तब मैं कमलिनीजी से जा मिला । उन दिनो मेरे दिल में विश्वास हो गया था कि इन्द्रदेव मुझसे रज है। अत मैंने इनसे भी मिलना-जुलना छोड दिया वल्कि यो कहना चाहिए कि हमारी इतनी पुरानी दोस्ती का उन दिनों अन्त हो गया था । . ... इन्द्रदेव--वेशक यही वात थी । स्त्री के मरने को खबर सुन कर मुझे दडा ही रज हुआ । मुझे कुछ तो भूतनाथ की जुबानी और कुछ तहफीकात करने पर मालूम ही हो चुका था कि मेरी लडकी और स्त्री इसी की बदौलत जहन्नुम चंबी गई। अस्त ष पक




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