ध्यान - सम्प्रदाय | Dhyan Samprday

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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नचोधिघम घ्यान-सम्प्रदाय के संस्थापक ड् और बौद्ध धर्म के उच्चतर सत्य की श्रोर उसे ले जाने वाले है । उन्होंने श्रपने विलक्षण कठोर ढग मे उसे यही बताया कि दान देना, विहार बनवाना श्रौर श्रन्य पुण्य कार्य करना अधिक महत्वपुणणं नही हैं, क्योकि ये श्रनित्य हैं, छाया के समान श्रसत्य है । इस प्रकार श्रह भाव से सम्राट को बचाकर शुन्यता के उच्च सत्य का उन्होने उसे उपदेश दिया । उन्होने उससे उस झ्रद्धय सत्य की श्लोर इशारा किया जो पुण्य श्रौर पाप, पवित्र श्र श्रपवित्र के दन्द्वात्मक विचारों से श्रतीत है ।* वोधिधमं के व्यवहार मे एक श्रसाघारण गौरव का भाव है जिसे कोई इच्छाझ्रों वाला मनुष्य या जिसे ध्रपनी सत्य-प्राप्ति पर गहरा विश्वास न हो, एक विदेशी निरकुश सद्नाट के सामने प्रकट नहीं कर सकता था । चीनी सम्राट के साथ श्रपनी उपयुक्त भेट के बाद वोधिधमे ने समझ लिया 'कि उसे उनसे श्रधिक लाभ होने वाला नही है श्रौर न वह उन्हें समभ ही सकेगा । श्रत उसके दरवार को छोड़कर वे यादू-त्सी नददी को पार कर उत्तरी चीन के वेई नामक राज्य में चले गये । यहा उनका अधघिवतर समय इस राज्य की राजघानी लो-याइू के समीप शुगू-दानू पव॑त पर स्थित 'नाइव्त घारिति' ('इवा-लिनू”) नामक बौद्ध विहार मे वीत्ता । इस विहार का निर्माण पाचवी नयाताब्दी ईसवी के प्रथम भाग मे किया गया था । वोधिधमं इस विहार के प्रथम दर्गत करते ही मन्त्र-मुग्ध जैसे हो गये थे । 'नमो' कहते हुए वे हाथ जोड़े चार दिन तक इस विहार के सामने खडे रहे । उनका कहना था कि उन्होंने कई देनों में भ्रमण किया है, परन्तु इस प्रकार का भव्य विहार उन्होने वही नहीं देखा, बुद्ध के देवा (भारत) मे भी नहीं । यही नौ वर्ष तक वोधिघमं ने ध्यान ?. 'छुठे धर्मनायक द्वारा भापित सूत्र मे उल्लेख हैं कि एक दार (चीन के) शियु- चात्रो प्रदेश के अशासक व ने छठे धर्मनायक (हुइ-नेंगू &३₹८-७१४ ई०) से पूछा कि कया वे जो कु सिखाने हैं, वइ सब वो थिघ मे के हारा सिखाये गए मूल सिद्धान्त ही हैं ? इसका उत्तर जब धर्मनायक ने वलपूर्वक “हा” में दिया, तो उक्त अशास्क ने उनके सामने सम्राद्‌ यू. शोर वोधिधर्म के इस सलाप को ही लेवर यह प्रश्न रखा कि “व मेरी समभ में यह विलकुल नहीं श्राता कि वोधिवमं ने ऐसा उत्तर क्यों दिया ?” (दान देने श्रादि में कुछ भी पुण्य नहीं है; णेसा क्यों कहा ?) छठे धमनायक ने से उसके लिए स्पप्ट किया हैं । उनके कहने का साराश यह है कि वास्तविक पुण्य का अधिवास “धर्मकाय” था “मन के सार' में है श्रोर उसे वही खोजा जाना चाहिए ! दान देना; विद्ार बनवाना श्रादि चित्त के -उल्लासकारी कृत्य हैं घर बास्तविक पुण्य नहीं हैं । “लो हमारे धर्मनायक ने कहा उसमें कुछ गलत नहीं है | सन्नाट, ही स्वय रुच्चे माग॑ वो नहीं जानता था ।” हुइ-नेगू के पूरे उत्तर के लिए देखिये हि सच झॉव वे लेंगू (दुइन्तेसू ), उष्ठ 3६:४० |




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