थेरी - गाथाएँ | Theri Gathayen

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Theri Gathayen by डॉ. भरतसिंह उपाध्याय - Dr. Bharatsingh Upadhyay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दुसरा चं १. त पवत की चोटी पर बैठ गई। वहीं मेरा चित्त मुक्त दोगया ! तीन बिद्याओं को मैंने प्राप्त कर लिया; जुद्ध-शासन (पूरा) कर लिया { ॥३०॥ २५, मित्रा कपिलवस्तु मे शाक्यो कै राज-कुल मेँ जन्म ! महाप्रजापती गोतमी थे प्रच्ज्या प्रदण की । श्रषने पूर्वजीवन का अजुचिंतन करती हुई चह ज्ञानोन्मेष के उल्लास में गाती है: हर चतुदेशी को, पूशमासी को और प्रत्येक पक्ष की अष्टमी को, म त्रत रखती थी, उपवास करती थी । क्यों? यह सोचकर कि देव-योनि को प्राप्त कर मैं स्वर में वास करूंगी ! ॥३९। हि वह्दी मैं आज नित्य ही एकाद्दारी हूं; सु ढ़े हुए सिर वाली ह चीवर पहनने बाली हू | रितु आज मुभे देच-योनि की कासना नहीं है, खगं मे वास करते की अभिलाषा नहीं दै) कारण, मेनि हृद्थ को जलने चान्नी आशाओओ को ही दूर फक दिया है ! 1३२] २६, अभय-माता चास्वविक नाम पद्मावती । उजयिनी की प्रसिद्ध गणिका । मगधघ- राज विंविसार से इसके एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम श्रभय रक्खां गया 1 श्रभय में विंवितार की बढ़ी अनुरक्ति थी। बाद में अभय ने भवज्या रण कौ । उसके उपदेश से उसकी माँ प्रन्नलित हुई । शरभय ने जो उपदेश दिया था उसे गीतबद्ध कर रौर ्रपना भी एक श्लोक जोड़ 'रभयमाता ने ज्ञान के पूर्ण उन्मेष में साया : “माना ! अशुचि और दुर्गन्थमय, इस काया को तू वैसे के तलवों से ऊपर शर सस्तक के केशों से नीचे तक भ्त्यवेकण




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