अनुवाद कला अथवा व्यवहारदर्श | AnuvadKala Athwa Vyavhardarsh

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AnuvadKala Athwa Vyavhardarsh by श्री चारुदेव शास्त्री - Shri Charudev Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ६ ) ओर नहीं देखना चाहिए। वास्तव में “कारक” वही नहीं जिसे हम क्रिया के व्यापार को देख कर समभते हैं, परन्तु कहाँ कोन सा कारक है इस का ज्ञान शिष्टों श्रथवा प्रसिद्ध ग्रन्थकारों के व्यवहार से ही होता है ( विवक्षातः कारकाणि भवन्ति । लोकिकी चेह विवक्षा न प्रायोक्ती ), इस लिये छात्रों का संस्कृत व्याकरण का ज्ञान, अथवा उनका अपनी बोल चाल की भाषा का व्यवहार उन्हें शुद्ध संस्कृत व्यवहार के ज्ञान के लिये इतना उपयोगी नहीं जितना कि संस्कृत साहित्य का बुद्धिपुबंक परिशीलन । संस्कृत में सब प्रकार के यान वा सवारियाँ जिन में शरीर आदि के अंग, जिन्हें यान ( सवारी ) समभा जाता हे---भी सम्मिलित हैं “करण?” माने जाते हैं। यद्यपि वे वस्तुगत्या निर्विवाद रूप से अधिकरण!? हैं। ग्रन्थकारों की ऐसी ही विवक्षा है | जहाँ हिन्दी में हम कहते हें--वह रथ में आता हे” वहाँ संस्कृत में---स रथेनायाति” ऐसा ही कहने की शंली है । जहाँ हिन्दी में हम कहते हें--वह कन्धे पर भार उठाता हैं। वहाँ संस्कृत में हमें 'स स्कन्घेन भारं वहति” यही कहना चाहिए। रथादि की करणता ( न कि अधिकरणता ) ही भगवान्‌ सूत्रकार को श्रभिमत हे इस में अ्रष्टाध्यायी-गत अनेक सूत्र ही प्रमाण दैं-- वह्य॑ं करणम्‌ । _( ३॥१।३०२ ), दाम्नीशसयुयुजस्तुतुद्सिसिचमिहपत- दुशनहः करणे ( ३२३८२ ), चरति ( ४।४।८ )। वहन्त्यनेनेति वह्यंं शकटम्‌ । पतत्युड्डयतेनेनेति पतृत्र॑ पक्ष: । पतति गच्छत्यनेनेति पत्त्रं वाहनम्‌ । # शकटेन चरतीति शाकटिकः । हस्तिना चरतोीति हास्तिकः । इस विषय में कुमार- सम्भव तथा किरात में से नीचे दी हुईं पंक्तियों पर ध्यान देना चाहिए---यश्वा- प्सरोविश्रममण्डनानां सम्पादयित्रीं शिखरेबिंभर्ति...... ... ( धातुमत्ताम्‌ ), मध्येन सा वेदिविलमप्मध्या वलिशन्नयं चारु बभार बाला गुणानुरागेण शिरोभिरुछते नराधिपेर्माल्यमिवास्थ शासनम्‌ ( किरात ), गामधास्यत्कर्थ नागो मुणालम॒दभिः: फरणुं: ( कुमार ), तथेति शेषामिव भतु राज्ञामादाय मूध्नो मदनः प्रतस्थे ( कुमार )। इन उदाहरणों से संस्कृत के व्यवहार को एकरूपता निश्चित होती हे । कहीं २ वस्तुसिद्ध करणत्व की उपेक्षा की जाती है, ओर साथ ही कारकत्व की भी । केवल सम्बन्ध मात्र की ही विवक्षा होती हे। अनुकामं तपंयेथामिन्द्रावरुण राय आ ( ऋ०३।३७।३॥ ) । कै 5 “कछष # दिश: पपात पत्त्रेण वेगनिष्कम्पकेतुना ( रघु० १५।८५॥। )




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