गृहलक्ष्मी | Grihalaxmi

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Grihalaxmi by गिरिजादत्त शुक्ल 'गिरीश' - Girijadatt Shukl 'Girish'

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गृहलक्ष्मी श्श ए+स्‍ 2 ७+स सास उस स सी जल 2 सससससस सस+ सम सस रस स सच टूटा बज्ध भश्रचानकक उस पर झ्राकुल विकल नितात बनी, अझसहाया अवलोक अवस्था झपनी अतिशय अन्त बनी। “ग्रयि मायाविनि निद्रे ! तू ने झाज श्रनथ किया कैसा ! मेत्र | तुम्हे यह उचित नहीं था घोखा हाय दिया कसा 1[श्श यो कह भ्रमित विकल होती थी भगिनी वदन मलीन महा, सलिल विहीन मीन सी वह थी तलफ रही वन दीन महा। डोक-ठोक भाथा निज कर से वह नत शीश लगी. रोने, उसकी विपद विलोक दिया भी कम्पित-्गात लगा. होने।रश जेठ रसोईगृहू मे आये भोजन हेतु समय ऐसे । समझ सके न रहस्य वहाँ का भीौर समभते ही कंस? भोजन आ न रहा था आगे और न था परसा जाता, केवल सिसिक सिसिक रोने का सस्‍्वर॒ था कानो में आता।१श।




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