प्रकृत - काश्मीरम | Prakart Kashmiram
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
1 MB
कुल पष्ठ :
91
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्राक्ृतकाश्सौरम॑ श्र
(१७)
लजस्व पड्ुज ! न पड्ूकलझ्योगात्,
ले धार्यसेडलकछुले यदि सुन्दरीमिः ।
मूपझ्थि स्थितः पशुुपतेः शशलाडिछतोउपि,
चन्द्रो छुदा इसति शारद्चन्द्रिकासु ॥
व्याख्या-- ते
कीचड़ में कमछ खिला है । कवि कमल को सम्बोधित कर कहता है--कमल | तू
कीचड़ में जन््मा है, यई सोच लज्जित मत हो । देख; तुमे सुन्दर रमणियाँ अपने बालों
पर धारण करती हैं.। यह तेरा कितना बड़ा मान है। चन्द्रमा में कछंक है--खरगोश
का निश्ञान है. पर वह अपने गुणों के कारण शंकर के शिर पर स्थित है; तब उसकी
५ कलंक की ) बद क्यों चिन्ता करे | बह तो शरद् ऋतु की चॉदुनी रातों में प्रसन्नता
के साथ हँसता रद्दता है, अपना दपे ग्रगट करता है। तुझे भो डसको तरदइ हँसना
चाहिए ।
निष्कर्ष--
'फ्ीन कहाँ जन्मा है, कैसी परम्परा से आया है, इसे कोई नहीं पूछता। सब गुण
की पूजा करते हैं ।
[ १51]
दूर॑ न याति तरुती मरूतो5तिवेगा--
दष्याहता चनरूता प्रियरामरक्ता |
या स्थक्तू मिच्छति पति निधनाद्धनस्य,
के वा स्तुबन्तु विकलां कलिकामिनीन्ताम ॥
सन्दरभ--
बड़े चेग से आँवी चल रही दै। वृक्ष स्थिर खड़ा है। बेल वृक्ष के
चार्रों ओर लिपढी दै। आँधी के आघातों से भी चह दूर नहीं हटती
व्यास्या--
घन को लता को अपने दक्ष रूप प्ियतम से कितना प्रेम है। आँधी के जबद॑स्त
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