प्रकृत - काश्मीरम | Prakart Kashmiram

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Prakart Kashmiram by रघुनन्दन शर्मा - Raghunandan Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्राक्ृतकाश्सौरम॑ श्र (१७) लजस्व पड्ुज ! न पड्ूकलझ्योगात्‌, ले धार्यसेडलकछुले यदि सुन्दरीमिः । मूपझ्थि स्थितः पशुुपतेः शशलाडिछतोउपि, चन्द्रो छुदा इसति शारद्चन्द्रिकासु ॥ व्याख्या-- ते कीचड़ में कमछ खिला है । कवि कमल को सम्बोधित कर कहता है--कमल | तू कीचड़ में जन्‍्मा है, यई सोच लज्जित मत हो । देख; तुमे सुन्दर रमणियाँ अपने बालों पर धारण करती हैं.। यह तेरा कितना बड़ा मान है। चन्द्रमा में कछंक है--खरगोश का निश्ञान है. पर वह अपने गुणों के कारण शंकर के शिर पर स्थित है; तब उसकी ५ कलंक की ) बद क्‍यों चिन्ता करे | बह तो शरद्‌ ऋतु की चॉदुनी रातों में प्रसन्‍नता के साथ हँसता रद्दता है, अपना दपे ग्रगट करता है। तुझे भो डसको तरदइ हँसना चाहिए । निष्कर्ष-- 'फ्ीन कहाँ जन्मा है, कैसी परम्परा से आया है, इसे कोई नहीं पूछता। सब गुण की पूजा करते हैं । [ १51] दूर॑ न याति तरुती मरूतो5तिवेगा-- दष्याहता चनरूता प्रियरामरक्ता | या स्थक्तू मिच्छति पति निधनाद्धनस्य, के वा स्तुबन्तु विकलां कलिकामिनीन्ताम ॥ सन्दरभ-- बड़े चेग से आँवी चल रही दै। वृक्ष स्थिर खड़ा है। बेल वृक्ष के चार्रों ओर लिपढी दै। आँधी के आघातों से भी चह दूर नहीं हटती व्यास्या-- घन को लता को अपने दक्ष रूप प्ियतम से कितना प्रेम है। आँधी के जबद॑स्त




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