कसाय-पाहुडम् [थिदी विहात्ति ] | Kasaya-Pahunam [Thidi Vihatti]
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
28 MB
कुल पष्ठ :
560
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)गा० २२ ] हिविविहत्तीए अद्ाल्ेदी ६
च। वहुसु अणिओगदारेस संते्ठ अद्धाछेदो चेव पढम॑ किमट्॒ठ बुचचदे ! ण, अद्धाछेदे
अणवगए संते उवरिमअहियारपरूविज्ञमाणत्थाणमवगमावखुष त्तीदो ।
६ ६. उक्कस्से पयद॑ | दुबिशो णिददेसो-ओघेण आदेसेण य | तत्थ ओघेण
मोहणीयउक्स्सहिदिविहत्ती केत्तिया ! सत्तरिंसागरोबमकोडाकोंडीओ पडिबुष्णाओ |
कुदो १ अकम्मसरूवेण द्विदा कम्मइयबर्गणक्खंधा मिच्छत्तादिपच्वएण मिच्छत्तकम्प-
सरूवेण परिणद्समए चेव जीवेण सह वंधमागदा सत्तवाससहस्सावा्॑ मोच्रण
सत्तरिसागरोबमकोड कोडीस जहाकमेण णिसित्ता सत्तरिसागरोवमकोडाकोडिमेचकालं
कम्मभावेणच्छिय पुणो तेसिमकस्मभावेण गमणुवलंभादों । एवं सव्वणिरय-तिरिक्ख-
पंचिदियतिरिक्खतिय-मशुस्सतिय-देव-भवणादि जाव सहर्सार ०-प॑चिदिय-पंचि ० पज्ज ७-
तस-तसपज्ज ०-पंचमण ०-पंचबचि ०-कायजोगि-ओरालिय ०-बेउव्यिय ०-तिण्णिवेद-चत्तारि- ,
कसाय-मदिसुदअण्णाण-विहंग ०-असंजद ०-चक््खु ०-अचक्खु ०-पंचलेस्सा ०-भवसिद्धि ०-
अब्भव०-मिच्छाइ्वि ०-सण्णि-आहारि त्ति ।
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४4४24०२2२४२२२००>>पुलरलडजरर
शंका--वहुतसे अनुयोगद्वारोंके रहते हुए सबसे पहले अद्धाच्छेदका ही कथन क्यों किया ९
समाधान--हीं, क्योंकि अद्धाच्छेदके अज्ञात रहनेपर आगेके अधिकारोंके द्वारा कहे
जानेवाले अर्थका ज्ञान नहीं हो सकता है| अतः सबसे पहले अद्ध[च्छेदका कथन किया जा रह! है।
$ ६, उत्कृष्ट अद्धाच्छेदका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है--ओ निर्देश
ओऔर आदेशनिदेश । उनमेसे ओघनिर्देशक्की अपेक्षा भोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति
- कितनी है१ पूरी सत्तर कोडाकोडी सागर है; क्योंकि जो कार्मशवर्गशाओंके स्कन्घ
अकर्मरूपसे स्थित दें वे मिथ्यात्थ आदिके निमित्तसे मिथ्यात्व कर्मरूपसे परिणत होनेके
समयमें ही जीवके साथ बन्धरो श्राप्त होकर सात हजार वर्षप्रमाण आवाधा कालसे कम
सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोके समयोमे यथाक्रमसे निषेरुभावको प्राप्त हो जाते हैं और सत्तर कोड़ाकोड़ी
सागर कालतक कर्मरूपसे रहकर पुनः वे अकर्म भाषको प्राप्त होते हैं | इसी प्रकार सभी नारबी,
सामान्य तियेच, प॑चेन्द्रिय तिय॑च, पंचेन्द्रिय पर्याप्त तियंच, योनिम्रती तियेच, सामान्य मनुष्य,
पर्याप्त मनुष्य, मनुष्यिणी, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्तार स्वर्गतकके देव, पंचेन्द्रिय,
पंचेन्द्रिय पर्याप्त, न्रस, चस पर्याप्त, पाँचों सनोयोगी, पॉचों चचनयोगी, काययोगी, औदारिक-
काययोगी, वैक्रियिककायथयोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी,
विभंगज्ञानी, असंयत्त, चक्तुदशनी, -अचच्षुदशेनी, कृष्ण आदि पाँच लेश्यावाले, भव्य, अभव्य,
मिथ्यादृष्टि, संज्ञी और आहारक जीबोंके ज्ञानना चाहिये !
विशेषाये--वन्धकालमें मिथ्यात्वकी सक्ृष्ट स्थिति सत्तरकोडाकोडी सागर अमाण
प्राप्त होती है,'अतः ओघसे मिथ्यात्वकी स्थितिका उत्कृष्ट अद्धाच्छेद सत्तर कोड़ाक्ोड़ी सागर
कहा है। आगे और जितनी भार्गणाएँ गिनाई हैं वे सब संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त अवस्थाके रहते
हुए सम्भव हैं और उनके मिथ्यात्व गुशस्थानके सद्भावमें मिथ्यात्वका यह उत्कृष्ट स्थितिवन्ध
सम्भव है इसीलिये इनके कथनको ओघके समान कहा है | शुक्ललेश्यामें संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त
अवस्था और सिध्यात्व गुशस्थान भी द्वोता है परन्तु शुक्ललेश्यामें अन्तःकोटाकोटीसे अधिक
नह के हु
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