यजुर्वेद खंड 1 | Yajurved Khand 1

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Yajurved Khand 1  by चन्द्रप्रकाश सिंह - Chandraprakash Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(१७) अवस्थी के मन में सचु १६८४ में यह विचार आया कि देववाणी संस्कृत से एक ओर तो समस्त विश्व लाभान्वित हो रहा है जबकि अपने मूल स्थान- भारत में ही वह लुप्तप्राय होती जा रही है।. साथ ही यह अब दिवा- स्वप्न-सा है कि 'संस्कृत' भारत की सम्पकं भाषा अथवा आम बोलचाल की भाषा हो सकेगी। इसका समय तो निकल गया। अतः यदि संस्कृत कै प्राचीन वाङ्मय (वेद-पुराण, उपनिषद-- जिनसे प्राप्त प्रकाश के बल पर ही माज समस्त विश्व विज्ञान के क्षेत्र में चरमोत्कषे पर पहुँच सका है) को भव सुरक्षित रखना है, तो उसे जन-जन तक उसकी भाषा में पहुंचाना ही श्रेयस्कर है, अन्यथा हम कतंव्यविमुख ही कहलायेगे । अब विकल्प केवल एक है-- और वह है बहुत सरल हिन्दी भाषा में, गदूय अथवा पद्य अथवा दोनों रूपों मे संस्कृत के अधिकाधिक वाङ्मय का प्रस्तुतीकरण । “आल्हा अथवा राधेश्यामी रामायण” का साहित्यिक दृष्टि से भले ही स्थान ऊँचा न हो, लोकप्रियता की कसौटी पर ये वाल्मीकि-रामायण, उपनिषद्‌ भथवा योगवासिष्ठ जसे उक्कृष्ट एर्वे श्रेष्ठ ग्रंथो से अधिक खरे उतरे है, -सिफ़ इसलिए किं वे सुदूर गाँवों तक, आम जनता की भाषा में घर- धर प्रविष्ट हुए ।. इसके अलावा, आम तौर पर संस्कृत के ग्रंथ और विशेष- कर वेदों के जो संस्करण प्रकाशित एवं उपलब्ध हैं भी, वे भारी-भरकम तथा बहुत महंगे होने के साथ ही साधारण पाठक के लिए दुर्बोध भी है । अतः वेदों कौ जन-जन तक पहुंचाने के उदेश्य से स्व० पं. नन्दकूमारजी अवस्थी ने वेदों का “जनता संस्करण” प्रकाशित करने की ऐसी महत्त्वाकांक्षी योजना बनायी, जिसमें मूलमंत्र का सस्वर पाठ देते हुए उसका सान्वय शब्दाथ एवं सरल भाषा में टिप्पणी के साथ ही प्रत्येक मंत्र का सरल काव्यानुवाद भी दिया जाय इससे उनमें प्रतिपादित तथ्य की स्मरणीयता तथा गेयता मे यथेष्ट वृद्धि होगी । वस, फिर क्या धा, उसीक्षणसे योजनाके क्रियान्वयन हेतु आरम्भ हुई विद्वान कौ खोज । वेद-पण्डित तो एक-से-एक दष्टिगत हुए, योजना ने आकर्षित भी बहुतों को किया ।. वेद का कण्ठाग्र होना, मंच पर बेठकर वेद की' महत्ता का वर्णन करना अथवा प्रवचन द्वारा विद्वत्ता का प्रदशन भले ही हो जाय, परन्तु एकाग्रचित्त हो आसन ग्रहण कर पाण्डुलिपि तयार करना अपेक्षाकृत अधिक दुरूह और त्यागयुक्त होता है। इस प्रयास में न जाने कितनी बाधाएँ आयीं, कितने धक्के लगे, कितनी आथिक क्षति भी उठानी पड़ी । कभी-कभी तो तुलसीपत्र-अपंण के बावजुद पाण्डु- लिपिके दशेन का सौभाग्य ही न सुलभ हुआ अथवा पूणं ही ! फलस्वरूप बार-बार विद्वानों को बदलकर नये विद्वानों की खोज करने जैसे न जाने कितने सागर एवं पहाड़ पार करने पड़े। तथापि हमें अनेक उदारचेता कर्मनिष्ठ `




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