मध्यकालीन हिन्दी नाट्य - परम्परा और भारतेन्दु | Madhya Kaleen Natya - Parampra Aur Bharatendu

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Madhya Kaleen Natya - Parampra Aur Bharatendu by चन्द्रप्रकाश सिंह - Chandraprakash Singh

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about चन्द्रप्रकाश सिंह - Chandraprakash Singh

Add Infomation AboutChandraprakash Singh

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
भारतीय-नादुस-परंपरा 18 है।, और फलत' उसका निघातक रूप नाय्यशास्त्र के उक्त जर्जर ध्वज से पुर्णणया मिलता है । यज्ञ युप के अनुकरण-स्वरूप उक्त ध्वज का स्थापित करने की प्रया केबल नाथ्यक्षालाओं में ही नही, अपितु नाटक की भाँति ही चैदिक साहित्य था बैदिक कर्मकाड से पद्भूत और प्रधावित इसी प्रकार की अन्य क्रियाकों में भी प्राप्त होती हैं । उदाहरण के लिये बीरगाधात्मक वैदिक सुंबाद- सुक्तो की परंपरा में चली आती हुई पौराशिक कथाओं के प्रचचन में भी इसी प्रकार का एक ध्वज गाड़ा जाता है; वहाँ यदि कोई अंतर है सो इतना ही कि वदिक देव और असुर के स्थान पर क्रमश: देवोपम गोक्णरे और असुरोपम घूघुकारी अथवा इसी प्रकार के अन्य मानवीय प्रतीकों का उल्लेख मिलता है 1! देवासुर-संप्राम, महेन्द्र-विजय तथा यूपोपम की गज के साथ-साथ यरि हम वेद-व्यबहार को साववर्षिक बनाने का नाटक को नास्यशास्वोक्त उद्देक्य भी सामने रखें तो यह बात सहज में ही स्पष्ट हो जाती है कि जिस नाटकीय परंपरा के लिये भारत का' नाव्यशास्त्र लिखा गया, उसका जन्म, परिवद्धल _ तथा परिष्फार वैदिक दर्श, साहित्य तथा कर्मकाड के उदात्त और औओजस्वी उत्सग में हुआ । आगे चलकर रगमंत्र के सिरूपण में यह भली भाँति, दर्शाधा गया है कि तास्यशास्त्र में वाणित रगशाला के स्वरूप का निर्धारण भी बैदिक यज्ञ-मडपों के अनुरुरण पर ही हुआ और नाटकीय प्रयोग से सबंध रखने वाली _ अनेक धार्मिक क्रियाओं का उद्भव भी वैदिक नर्मेकाड से हुआ परंतु उक्त विवेत्रन से यह निष्कर्ष निकालना ठीक न होगा कि संस्कृत- नाटक तास्वरिक दृष्टि से सदा वैसा ही बना रहा जैसा वैदिक काल मे था ॥ पशिवतत-चघक् में पढ़कर जिस प्रकार वैदिक यज्ञ तथा उसके कमें कांड बदलते गये चेसे ही उनसे संबद्ध नाटक का भी रूपतिर होता गया । इस संबंध में सबसे अधिक उल्मेखनीय बह 'वेदवाद” है, जिसमें उत्तरोत्तर जटिलता को प्राप्त होने वाले वैदिक यज्नों मे हिसा तथा भोगरबय-लिप्सा को प्राधान्य हो गया और जिसका विरोध न केवल बाहृंस्पत्य, जैन और बौद्ध आदि तथाकथित दर्शनों से किया, अपितु -श्रीमदूभगवदूगीता तथा उससे भी पहले कुछ आह्माण-प्रथो, आरण्यं, तथा उपनिपदो ने भी किया ।* ता ब्दियों तक चलने धाले इस विरोध के परिणामस्वरूप ही नादक को कमकाड से हुटकारा पाने का अवसर मिला और जे स्वतंत्रता की वायु मे पल्लबवित और पुष्पित होने का सौभाग्य १--वज्यो युपः, शात० रद ४ १९ २--भीमदनागवत-सॉहात्स्यम्‌ । ३--द्रष्ठ० 'दि कंसेप्ट ऑव वेदिक सोइयालॉजी' ।




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now