श्री मद वाल्मिकी रामायण भाग 1 | Shrimadvalmikiya Ramayan Vol. - I (balkand Se Kishkindhakand Tak)
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
57 MB
कुल पष्ठ :
707
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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थीमबतात्मीकीररामामणे
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जिससे त्रिपुरका नाश हुआ था; वह वही धनुष था; जिसे
घुमने तोढ़ छाछा है ॥ १२ ॥
दूँ द्वितीय दुर्भप विष्णोर्तं खुरोत्तमेः
तदिदं बेष्णब॑ राम घन) परपुरंजयम् ॥.१३॥
(और दूसरा दुर्धप घनुप यह दे। जो मेरे हाथमें है । इसे
मेष्ठ पेवतामोंनि भगवान् विष्णुको दिमा था। श्रीराम | शत्रुनगरी-
पर मिजय पानेवाछा पट्टी यह धेष्गण चनुप दे ।॥ १३ ॥
जमानसार फाऊुत्स्थ रौद्रेण घनुपा त्विदम ।
तदा तु देवताःसबोःपृ८छच्ति सम पितामहम ॥ १७॥
शितिकण्ठस्थ विष्णोश्व घलापलनिरयीक्षया ।
नऊकुत्थनन्दन | यह भी शिवजीके धनुपके समान ही
प्रवछ है। उन दिनों समस्त देवताओंने भगवान् शिव और
विष्णुके बलाबलकी परीक्षाके लिये पितामह ब्क्षाजीते पूछा
था कि इन दोनों देवताओंमं कोन अधिक बलशाली है? |
अभिप्राय छु विशाय देवतानां पितामहः ॥ १५॥
निरोधं जवयामास तयोः सत्यचतां घरः।
'ेबताओकि एस अभिप्रागकी जानकर सत्यवादियोंमें भेषड
पितामह ब्रह्माजीने उन दोनों देवताओं ( शिव और विष्णु )
में विरोध उत्पन्त कर दिया ॥ १५८३ ॥
विरोधे तु मद॒दू युद्धमभवद् रोमहपणम्॥ १६॥
शितिकण्ठस्यविष्णोश्व परस्परजयेषिणोः ।
“विरोध पैदा होनेपर एक-दूसरेकी जीतनेकी इच्छावाले
क्षिव और बिण्णुमें बढ़ा भारी युद्ध हुआ; जो रोंगटे खड़े कर
देनेवाला था ॥ १६३ ॥
तदा ठु जास्मत शंच धनुभामपराक्रमम् ॥ १७॥
हुंकारेण महादेवः स्तस्थितोष्ध त्रिलोचनः
“उस समय भगवान् विष्णुने हुझ्लार्मात्रसे शिवजीके
भयंकर बलशाली घनुपकी शिथिल तथा तिनेत्रधारी महादेवजी-
को भी स्तम्मित कर दिया ॥ १७३ ॥
देवेस्तदा समागस्य सर्पिसद्वेः सचारणेंः ॥ १८॥
याचिती प्रशर्म ठन्न जम्मतुस्तो सुरोत्तमी |
सब ऋषिसमूहों तथा चारणोंसहित देवताओंने आकर
उन दोनों श्रेष्ठ देवताओँसे शान्तिके लिये याचना की; फिर वे
दोनों वहाँ शान्त हो गये ॥ १८६ ॥
जअम्भितं तदू घतुद छा शर्व विष्णुपराक्रमेः ॥ १९ ॥
अधिक मेनिरे विष्णु देवाः सपिगणास्तथा |
“भगवान् विष्णुके पराक्रमसे शिवजीके उस धनुषकों
शिथिल हुआ देख ऋषियोंसद्वित देवतानि भगवान् विष्णुको
श्रेष्ठ माना ॥ १९३ ॥
घनू दद्गस्तु संकुद्धों विदेदेधु सद्दायशाः ॥२०॥
देवरातस्य राजपेंददी इस्ते ससायकम।
सदनन्तर क्रुपित हुए मद्दायशस्वी रुद्रने वाणसहित
अपना घनुष विदेशदेशके राजर्पि देवरातके द्वाथ्मे दे दिया ॥
इदूं. च् बेष्णयं राम घन्ः परपुरंजयम् ॥२१॥
फऋतचीके भार्ग वे प्रादाद् विष्णु/स न््यासमुत्तमम।
थ्रीसम | शाघुनगरीपर विलय पानेबाछे इस वेणाव-
भनुषकी मगवास् मिष्णुने शुगुदंशी ऋचीकमुनिकों उत्तम
धरोहरफे रूपमें दिमा था॥ २१३ ॥
ऋचीकस्तु महातेजाः पुत्रस्याप्रतिकर्मणः ॥ २२॥
पितुरमंम बदी दिव्य जमदस्नेमंहात्मनः ।
(फिर महातेजखी ऋचीकने प्रतीकार ( प्रतिशोध ) की
मावनासे रहित अपने पुत्र एवं मेरे पिता महात्मा जमदमिके
अधिकारमें यह दिव्य धनुष दे दिया ॥ २२६ ॥
न्यस्तशरस्त्रे पितरि मे तपोय्छसमन्विते ॥ २३॥
अजजुनो विद्घे झृत्युं प्राकृतां चुद्धिमास्थित
(तपोवलसे सम्पन्न मेरे पिता जमदग्नि अल्न्शर्ोका
इरित्याग फरके जब ध्यानस्थ होकर बैठे ये, उस समय प्राइत
बुद्धिका आश्रय लेनेवाले कृतवीर्यकुमार अजुनने उनको मार
डाला ॥ २१२६ ॥ '
चधम्रप्रतिरुष तु॒पिठुः श्र॒त्था खुदारुणम् ।
क्षत्रम॒ुत्साद्य॑ रोपाज्ञात॑ जातमनेकशः ॥ २४॥
(पिताके इस अत्यन्त मयंकर बधका, जो उनके योग
नहीं था; समाचार सुनकर मैंने रोपपूर्वक वारंबार उतत्न
हुए क्षत्रियोका अनेक वार संहार किया ॥ २४ ॥
पृथिवीं चाखिलां प्राप्प कश्यपाय महातने।
यश्स्यान्तेडद्दूं राम दृक्षिणां पुण्यक्रमणे ॥ २५॥
श्रीराम | फिर सारी पृथ्वीपर अधिकार करके मेने एक
यश किया और उस यशके समाप्त होनेपर पुण्यकर्मा महात्मा
कश्यपको दक्षिणारूपसे यह सारी पृथ्वी दे डाली ॥ २५ ॥
द्त्वा महेन्द्रनिल्यस्तपोचलूसमन्वितः ।
श्रुत्या तु धनुषों भेद ततोडह॑ द्रुतमागतः ॥ २६॥
ध्ृष्चीका दान करके महेन्द्रपर्व॑ंतपर रहने लगा
और वहाँ तपस्या करके तपोबलसे सम्पन्न हुआ। वहाँसे शिवजीके
धनुषके तोढ़े जानेका समाचार सुनकर में शीमतापूर्वक यई।
आया हूं ॥ २६ ॥
तदेव॑ वेष्णव॑ राम पितृपेतामर्ह मधत्।
क्षत्रध्स पुरस्कृत्य शद्धीष्ष धमुरुत्तमम् ॥ २७ ॥
योजयस्व ध्ञश््रेप्ठे शरं परपुरंजयम्॥ “*
यदि शक्तो5सि काकुत्स्थ इन्हे दास्यामि ते ततशा २८॥
थऔीराम | इस प्रकार वह महान वैष्णवधनुष मेरे पिता
पितामदोंके अधिकारमें रहता चला आया है; अब दुम क्षियभर्की
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