सिद्धान्त शिरोमणि | The Siddhant-siromani

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The Siddhant-siromani by भास्कराचार्य - Bhaskaracharya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ड़ के का आरंम होता था | यह उत्तर और दक्षिणगति का समय गाया और श्रावण मास में होता था । उत्तरायण और दक्षियायन में दिन की बढ़ती और घटती एफ प्रस्थ जल के वरांबर होती थी। उक्त दोनों अयमों में दिन-रात्रि के मान में ६ मुहृर्त का भेद पड़ता था। पनिष्ठा के आदि में वत्सरारंभ माना ,जाता था इत्यादि। इसके पूर्वफाल में कमी वासंत-विषुवदिन से कभी सूर्य के उत्तरायण के थेत्र से षर्षरंभ गिना जाता था । पहले चान्द्रमास पूर्ण, से गिना जाता था परंतु वेदाज्न- ज्योतिष के समय से वह झमावास्या से -माना जाने लगा । तैत्तिरीय- संहिता के समय में वषारंभ माघी पूर्णा से होता था परंतु बेदाड़ु- ज्योत्िप में मांधी अमासे | इन बातों से स्पष्ट है कि संह्तिताफाल में झैसी गणनाअणाली प्रचलित थी, वह वेदाह्ई ज्योतिष के समय परिवर्तित होगई। झनंतर वराहमिहिर के समय ( शक की पॉँचवीं शताब्दी ) में पुनः परिवर्तन हा और उसी संस्कृत-रुप में अत्र पश्चाद्न- या खरूप शिक्ती प्रकार स्थित होरहा है। अस्तु । बास्‍्तत्र में बेदाइ- . ज्योतिष को रचना ज्योतिषशिद्दा देने फे अमिप्राय से नही हुई । किंसु वैदिक क्रियाओं के संपादनार्थ भात्र है, ६. उसी फे प्रयोजनीय बातों का स्थूल् निरूपण किया है । हमारे प्राचीन आर्यो के ज्योतिष-ज्ञान फी' चरम सीमा इतने में दी समकना अ्रममात्र हैं। आचार्य बराह्ममिहिर तल ी-वनन तल ल...००००........0. * फई विदेशी विद्वालों ने ' बरेदाप्न्योतिष ! को देखफर यह समझा है के प्राचीन झआायों को इसके स़िया और उ्योतिद का शान नहीं था परन्त वेदाद-, ज्योतिष का उद्देश्य क्या दे-मेबसमूलर के शब्दो में सुनिप--., , + ३००16 16 ह6 णैवूं०्ण ०6 ताह बचा] प्राए० 40 (ल्बली 4१(00ण19५ , 1 पृछ॥ 6 दृ्घालल्को 0००, जात 5४७ रणाशठ्ज़ इण्ला > गी।6 वश ९फोए $छपवी९8 ४8 15 7 6९७३8 वर हु 39053 ०७ [16 ए ७०८ झाएंग्रीटटड- 10910, 1659. पच०ज्रीपपट० ० [छा िचंशहु 116 प5३5. घाते - गत ० #लंधा। हिजच्छ ए६




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